यशोदानंदन-५३
श्रीकृष्ण ने एक संक्षिप्त उत्तर दिया और उसके बलिष्ठ हाथों को ऐसा जोरदार झटका दिया कि वह सीढ़ियों से लुढ़कता हुआ सीधे धरती पर पीठ के बल जा गिरा। उसका स्वर्ण-मुकुट ठन-ठन आवाज करता हुआ लुढ़कते-लुढ़कते जनसमूह में विलीन हो गया। उसके रूखे घने केश अस्त-व्यस्त होकर बिखर गए।
बड़े-बड़े और शक्तिशाली राजाओं को अपनी भुजाओं में दबाकर मृत्युदंड देनेवाला और अपनी बलिष्ठ भुजाओं से देवकी के सात पुत्रों को शिलाखंड पर पटककर हत्या करनेवाले कंस की वे निर्दयी निर्मम भुजायें इतनी निर्बल कैसे हो गई। उसने तनिक भी प्रतिकार नहीं किया। भय ने उसका रण-कौशल हर लिया था। बलशाली से बलशाली पापी भी जब मृत्यु के द्वार पर खड़ा हो जाता है, तो लड़खड़ा जाता है, निढाल हो जाता है, किंकर्त्तव्यविमूढ हो जाता है, निर्बल हो जाता है। अपने आप निःसत्व हो जाता है।
श्रीकृष्ण ने एक और छ्लांग लगाई। कलाबाजी दिखाते हुए वे सीधे कंस के उन्मत्त, पुष्ट वक्ष पर आरूढ हो गए। बायें हाथ से उसके रूखे घने केश पकड़कर उसकी ग्रीवा को नीचे-उपर उठाकर सीढ़ियों पर पूरी शक्ति के साथ बार-बार पटका और दायें हाथ की वज्रमुष्टि का प्रबल प्रहार उसके उन्मत्त वक्ष पर किया। प्रत्येक प्रहार के साथ श्रीकृष्ण के मुख से शब्द निकल रहे थे –
“यह मेरे पहले भ्राता की हत्या के लिए, यह दूसरे के लिए, यह तीसरे की हत्या के लिए ………….यह मेरे पिता की घोर अवमानना के लिए …….. यह मेरी माता को दी गई घृणित यंत्रणाओं के लिए …….. यह यादवों के अठारह कुलों को निष्कासित करने के लिए। जय माँ देवकी, जय पिता वसुदेव!”
श्रीकृष्ण प्रहार पर प्रहार किए जा रहे थे। अन्यायी का संपूर्ण शरीर रक्त से नहा चुका था। उसकी देह शिथिल पड़ती जा रही थी। श्रीकृष्ण की वज्रमुष्टि का प्रहार उसके लिए असह्य हो उठा। उसके प्राण-पखेरू उड़ गए।
कंस के सभी सहायक भय से सन्निपात की स्थिति में खड़े थे। उसकी मृत्यु के पश्चात् कंक, न्यग्रोध आदि उसके शेष आठ भ्राता श्रीकृष्ण पर टूट पड़े। उन्हें क्रोध से दौड़ते देख बलराम ने चुनौती दी। उन्होंने कुवलयापीड हाथी के दांत को ही अस्त्र बनाया और कंस के आठों भाइयों का एक-एक कर वध कर दिया।
कंस और उसके परामर्शदाताओं द्वारा आयोजित समारोह कंस की बलि के साथ समाप्त हो गया। प्रेम और विजय से उन्मत्त मथुरावासियों ने श्रीकृष्ण-बलराम को कंधे पर उठा लिया। गगनभेदी जयघोष – “श्रीकृष्ण-बलराम की जय! यादवराज श्रीकृष्ण की जय!” के साथ उन्होंने श्रीकृष्ण-बलराम को कंधे पर बिठाकर रंगभूमि की कई परिक्रमायें की और अन्त में सीढ़ियां चढ़कर राजसिंहासन पर स्थापित करने का प्रयास किया। श्रीकृष्ण ने सिंहासन का स्पर्श तक नहीं किया। अलग हटकर मथुरावासियों को संबोधित करते हुए कहा –
“मेरे प्रिय मथुरावासी बन्ध-बान्धवो! आज मथुरा स्वतंत्र है। मैं इसके परंपरागत गणतंत्र की बहाली की घोषणा करता हूँ। यशस्वी राजा उग्रसेन का राज्य कंसमुक्त हो गया। कारागृह में बंदी का जीवन व्यतीत कर रहे मेरे माता-पिता – देवकी, वसुदेव तथा मथुरा के सिंहासन के वास्तविक अधिकारी महाराज उग्रसेन एवं महारानी पद्मावती अभी मुक्त होंगें – इसी समय। नगरजनो! विश्वास रखिये, मथुरा के राजसिंहासन पर हमारे महाराज उग्रसेन ही विधिवत आसीन होंगे, मैं नहीं।”
जनसमूह ने एक स्वर से श्रीकृष्ण का अनुमोदन किया। और विलंब न करते हुए श्रीकृष्ण बलराम के साथ निकल पड़े अपने जन्मस्थान की ओर जहां उनके पूज्य माता-पिता बंदी बनाकर रखे गए थे। सभी यादव-वीर सम्मोहित-से उनके पीछे-पीछे चल पड़े। कारागृह के सभी सेवक पलायन कर चुके थे। कारागृह सुनसान पड़ा था। यादववीरों ने मार्ग दिखाया। शीघ्र ही एक विराट कक्ष सामने दीख पड़ा। लौह-द्वार पर एक बड़ा ताला लटक रहा था। सलाखों के पीछे थके-हारे व्याकुल नेत्रों में प्राण समेटे वसुदेव-देवकी बैठे थे। इतने लोगों की आहट पा वे उठ खड़े हुए। आसन्न विपदा के भय से वे अनायास कांप उठे। एक झन्नाटेदार आवाज हुई। एक यादववीर ने अपनी गदा के प्रहार से ताला तोड़ दिया था। भव्य लौह-द्वार कर-कर करता हुआ खुल गया। श्रीकृष्ण और दाऊ रुंधे कंठ और अश्रुपूरित नेत्रों के साथ दौड़कर अपनी माँ के पास गए। दोनों बालकों को एक ही साथ अपने आलिंगन में बांधते हुए देवकी फफक-फफकर कर रो पड़ीं। वसुदेव जी ने भी दोनों को गले लगा लिया। श्रीकृष्ण को आंसू बहाते हुए मातु यशोदा के अतिरिक्त किसी ने पहली बार देखा था। इधर वसुदेव जी सिसक रहे थे, उधर देवकी फूट-फूटकर रो रही थीं और दोनों के बीच उनके बालद्वय अपनी आँखों के खारे जल से पृथ्वी को सींच रहे थे। भावनाओं का आवेग थमने का नाम ही नहीं ले रहा था। किसी ने भी इस अद्भुत मिलन में हस्तक्षेप नहीं किया। श्रीकृष्ण ने ही सर्वप्रथम स्वयं पर नियंत्रण स्थापित किया। स्नेह-मिश्रित वाणी में उन्होंने माता-पिता को संबोधित किया –
“हे मेरे पूज्य पिता और हे मेरी पूज्या माता! हम आपके पुत्र हैं। जिस प्रकार आपलोग आठों पहर हमसे मिलने के लिए उत्कंठित रहे हैं, हम भी आपके दर्शन के लिए छटपटाते रहे हैं। आज हमने आततायी कंस का अन्त कर दिया है। अब हमारे एकसाथ रहने में कोई बाधा नहीं है। हम आज से जीवन भर साथ रहेंगे। शिशु, बालक और किशोर के रूप में हमारे द्वारा सन्तान-सुख पाने से आप वंचित रहे हैं। यह प्रकृति की व्यवस्था है कि सन्तान की बाल-क्रीड़ाओं का आनन्द उसके माता-पिता को सहज प्राप्त होता है, परन्तु आततायी कंस ने उस दुर्लभ सुख से आपको वंचित कर दिया। हम वह सुख आप दोनों को लौटा नहीं सकते, लेकिन यह वचन देते हैं कि भविष्य में कभी भी आपको सन्तान-सुख से वंचित नहीं करेंगे। कोई भी मानव अपने माता-पिता के ऋण नहीं चुका सकता। माता-पिता के सम्मिलित प्रयास से ही इस देह की उत्पत्ति होती है। मानव-योनि द्वारा ही हम धर्म के माध्यम से विभिन्न धार्मिक अनुष्ठानो को संपन्न करने में सहायक होते हैं। इस मानव शरीर के द्वारा ही हम अर्थ एवं काम के माध्यम से अपनी समस्त कामनायें पूर्ण कर सकते हैं। इस मानव तन में ही यह संभावना होती है कि हम भौतिक अस्तित्व से मुक्त होकर मोक्ष प्राप्त कर सकें। प्रत्येक मानव को अपने माता-पिता का अनुगृहीत होना चाहिए। उनका ऋण कभी चुकाया नहीं जा सकता। हे हमारे देवतुल्य पिता और और हमारी आराध्या जननी! आप सदैव हमारी सुरक्षा के लिए चिन्तित रहे हैं, परन्तु परिस्थितिवश हम आपकी कोई सेवा नहीं कर सके। कृपया हमारे पापों के लिए हमें क्षमा प्रदान करें।”
वसुदेव और देवकी विस्फारित नेत्रों से श्रीकृष्ण के वचन सुन रहे थे। उन्हें विश्वास ही नहीं हो रहा था कि उनका भोला बालक शास्त्रज्ञों की भांति इतने छोटे वय में विद्वत्वचन बोलेगा। दोनों अपने पुत्र के मीठे बोल सुनकर अभिभूत थे। दोनों ही वात्सल्य से मोहित हो गए। उनके कंठ अवरुद्ध-से हो गए। वे कुछ भी न बोल सके। एक बार पुनः दोनों भ्राताओं को अपने हृदय से लगा लिया।
बहुत रोचक विवरण !