मुक्तक/दोहा

दोहे : रौशनी के क़तरे

घट में राखे राम जो , हनुमत वीर कहाय |

शबरी प्रेम में बावरी , जूठे बेर खिलाय ||

अश्क पीर और प्यास से, नैनन नीर बहाय |

तब ही जानी राम जी , अब मोहे मिल जाय ||

मन -मृग घूमे बावरा , मृग कस्तूरी चाह |

कस्तूरी नभ में छुपी , मृग को मिले ना राह ||

मेरा मुझमें कुछ नही , सब ही उसका ज्ञान |

जो है घट – घट में बसा , करले उसका ध्यान ||

इतना क्यूं इतराय तू , चलता सीना तान |

पल में मिट्टी होयेगा, तेरा सब अभिमान ||

दहशत का माहोल है, सुख हैं कोसों दूर |

नेताओं की मौज है , जनता दुःख से चूर ||

सच्चे को रोटी नहीं, झूठा मौज मनाय |

सच्चा कचरा बीनता, झूठा रबड़ी खाय ||

— ‘चंद्रेश’, नई दिल्ली 

चन्द्रकान्ता सिवाल 'चंद्रेश'

जन्म तिथि : 15 जून 1970 नई दिल्ली शिक्षा : जीवन की कविता ही शिक्षा हैं कार्यक्षेत्र : ग्रहणी प्ररेणास्रोत : मेरी माँ स्व. गौरा देवी सिवाल साहित्यिक यात्रा : विभिन्न स्थानीय एवम् राष्ट्रीय पत्र पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित कुछ प्रकाशित कवितायें * माँ फुलों में * मैली उजली धुप * मैट्रो की सीढ़ियां * गागर में सागर * जेठ की दोपहरी प्रकाशन : सांझासंग्रह *सहोदरी सोपान * भाग -1 भाषा सहोदरी हिंदी सांझासंग्रह *कविता अनवरत * भाग -3 अयन प्रकाशन सम्प्राप्ति : भाषा सहोदरी हिंदी * सहोदरी साहित्य सम्मान से सम्मानित

One thought on “दोहे : रौशनी के क़तरे

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छे दोहे !

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