धरती में कंपन
सहसा,
अचानक बढ़ीं धड़कन,
हृदय में नहीं,
धरती के गर्भ में।
मची हलचल,
मस्तिष्क में नहीं,
भु- पर्पटी में।
सो गये सब,
मनुष्य सहित,
बड़े-बड़े मकान।
सो गये सब
पशुओं सहित,
बड़े-बड़े वृक्ष।
मचा कोहराम,
जन- जीवन में।
हुआ अस्त-व्यस्त
लोगों का जीवन।
फट गया कहीं-कहीं,
धरती का कपड़ा।
टूट गया हर -कहीं,
कोई धागा नहीं,
ढेर सारे मकान।
उजड़ गया सब,
चिड़िया का घोसला सहित,
मानव का आवास।
यहाँ आया था,
कोई जादूगर नहीं,
प्रलय विनाशकारी।
मचा गया प्रलय का ताण्डव,
यह क्षणभर का विपदा,
दे गया आँखों में आँसू।
बहुत से लोग चले गये,
कहीं मौज मस्ती करने नहीं,
अपनी अन्तिम यात्रा पर।
दे गये पिड़ा सिर्फ़,
अपनों को ही नहीं,
पुरे मानवता को—-
यहीं हुआ धरती में कंपन।
——–@रमेश कुमार सिंह
———–२६-०४-२०१५
अच्छी कविता !