उपन्यास अंश

यशोदानंदन-५४

तात वसुदेव और माता देवकी को साथ लेकर श्रीकृष्ण-बलराम विशिष्ट यादव सामन्तों के साथ महाराज उग्रसेन को मुक्त करने हेतु मुख्य कारागार की ओर चल पड़े। महाराज उग्रसेन और महारानी के पैर बेड़ियों से जकड़े हुए थे। यादवों ने अविलंब उनकी बेड़ियां खोलीं। अब वे स्वतंत्र थे। दोनों के नेत्र अश्रु-वर्षा कर रहे थे। पुत्र न हो, तो दुःख होता है, जन्म लेकर मर जाय, तो थोड़ा अधिक दुःख होता है, परन्तु ऐसा पुत्र, जो जन्म भी ले, जीवित भी रहे, लेकिन नालायक निकले, जीवन-पर्यन्त अपने माता-पिता को घोर कष्ट प्रदान करता है।

मथुरा की राजव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए श्रीकृष्ण और बलराम के लिए मथुरा में रुकना अनिवार्य था। उधर नन्द बाबा वृन्दावन वापस लौटने के लिए बार-बार आग्रह कर रहे थे। श्रीकृष्ण के बहुत समझाने-बुझाने के बाद वे सभी ग्वाल-बालों के साथ गोकुल लौटने के लिए तैयार हुए। गोप-गोपियों, मातु यशोदा एवं राधा रानी के लिए निश्चय ही यह एक महान कारुणिक दृश्य था। पूरा वृन्दावन शोक-सागर में डूब गया। गाय-बछड़ों ने नाद से मुंह फेर लिया, चिड़ियों ने चहकना बंद कर दिया, वृक्षों ने पुष्प खिलाना त्याग दिया। ऐसा लग रहा था जैसे यमुना की लहरें स्थिर हो गई थीं। सूर्य तो उगता ही है और अस्त भी होता है। समय की गति कहां रुकती है, परन्तु वृन्दावनवासियों की दिनचर्या जैसे थम सी गई थी।

माता यशोदा, नन्द महाराज, गोपियां तथा समस्त ग्वाल-बाल हर घड़ी, हर पल, हर पग पर केवल श्रीकृष्ण का ही चिन्तन कर रहे थे। सभी व्याकुल हो रहे थे। उधर श्रीकृष्ण को ही चैन कहां था? वे भी मातु यशोदा, नन्द बाबा और गोप-गोपियों का स्मरण कर बार-बार अधीर हो जाते थे। माता देवकी भांति-भांति के प्रयास करतीं, अपने पुत्र को प्रसन्न करने के लिए, परन्तु श्रीकृष्ण की आँखों का सूनापन दूर नहीं कर पाती थीं। बलराम से उन्हें ज्ञात हुआ कि उनके लाडले को दुग्ध, दधि, माखन और दुग्धनिर्मित व्यंजन अत्यधिक प्रिय है। एक दिन उन्होंने अपने हाथ से सुस्वादु खीर बनाई। बड़े प्रेम से उसे श्रीकृष्ण को खाने को परोस दिया। परन्तु लाडले ने खीर के पात्र को एक ओर सरका दिया, चखा तक नहीं। दुःखी माता द्वारा कारण पूछने पर उत्तर दिया –

“हे माता! मुझे क्षमा करना। मैं खीर नहीं खा सकता। मेरी मैया यशोदा नित्य ही मेरे लिए सुस्वादु खीर बनाती थीं और अपने हाथों से जिमाती थीं। गोकुल में खीर की कटोरी ले वे आज भी मेरी प्रतीक्षा कर रही होंगी। उनके नेत्र निश्चय ही निरन्तर अश्रुपात कर रहे होंगे। मैं उनके हाथ के अतिरिक्त किसी के हाथ का खीर नहीं खा सकता। मैंने प्रतिज्ञा की है कि या तो वृन्दावन लौटकर मातु यशोदा के हाथ की बनी खीर खाऊंगा या जीवन भर खीर का स्पर्श नहीं करूंगा। हे माता! मेरी इस धृष्टता के लिए मुझे क्षमा कर देना।”

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-५४

  • विजय कुमार सिंघल

    मार्मिक क्षण! अपनों से दूर होना बहुत कष्टदायक होता है.

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