मैं बहुत उदास हूँ …!
क्या अब मेरे,
सुख भरे दिन नहीं लौटेगें।
क्या अब मेरे कर्ण ,
उस ध्वनि को नहीं सुन पायेगें
क्य अब मेरे हँसीं,
उस हँसीं में नहीं मिल पायेगें।
क्या अब कोई,
मुझसे यह नही कहेगा-
ओ प्रिय ! तुम अकेले कहाँ हो,
मैं भी तेरे साथ में हूँ।
यदि मूझमे यह प्रवृत्ति अनवरत है।
तो इसलिए कि-
हो सकता है कोई मेरे जैसा-
उदास, मनमारे हुए।
आने वाले कल में आये।
और मेरे इस उदास भरे जिन्दगी में,
कोई संगीत सुनाकर,
हो सकता है दीप जलाये।
और दुबारा यही बात कहे-
ओ प्रिय ! तुम अकेले कहाँ हो,
मैं भी तेरे साथ में हूँ।
दिन ढल चुका है।
शाम हो चुकी है।
पंछी अपने बसेरा की तरफ लौट रहे हैं।
क्षितिज में-
धुन्ध का पहरा हो रहा है।
सामने एक नदी दीख रही है,
उसमें लहरें चल रही है।
जो बहुत उदास है।
मैं बहुत उदास हूँ।
—– रमेश कुमार सिंह
वाह बहुत खुब!!!!
बहुत खूब .
धन्यवाद श्रीमान जी।