उपन्यास अंश

यशोदानंदन-५५

श्रीकृष्ण ने वृन्दावनवासियों को सांत्वना देने के लिए अपने परम सखा उद्धव को गोकुल भेजने का निर्णय लिया। वे श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। उद्धव जी वृष्णिवंश के एक श्रेष्ठ व्यक्ति थे। वे देवताओं के गुरु बृहस्पति के शिष्य थे। वे अत्यन्त बुद्धिमान तथा निर्णय लेने में सक्षम थे। उनकी तर्कशक्ति अनुपम थी। अपनी वाक्‌पटुता के लिए वे विख्यात थे। श्रीकृष्ण स्वयं उनके पास गए। उद्धव का हाथ अपने हाथ में लेकर प्रेमपूर्वक निवेदन किया –

“मेरे सौम्य सखा उद्धव! मथुरा में अति व्यस्तता के कारण मेरे लिए वृन्दावन जाना संभव नहीं है। वहां समस्त गोकुलवासी मेरे वियोग में आंसू बहा रहे हैं। तुम मेरे हृदय की समस्त भावनाओं से भिज्ञ हो। मेरी इच्छा है कि तुम तत्काल वृन्दावन जाओ तथा मेरे माता-पिता – नन्द बाबा और मातु यशोदा तथा गोप-गोपियों को सांत्वना देने का प्रयत्न करो। मेरा कोई संदेश न पाकर, कही वे प्राण-त्याग न कर दें। किसी भयंकर रोग से पीड़ित व्यक्ति की तरह वे अत्यन्त दुःखी हैं। मित्र! तुम जाकर उन्हें मेरे कुशल-मंगल का समाचार दो। मुझे आशा है कि उनकी व्याधि अंशतः शान्त हो जायेगी। मेरी प्रिय गोपियां सदैव मेरे चिन्तन में लीन रहती हैं। उन्होंने अपना शरीर, कामनायें, जीवन तथा आत्मा – सभी मुझे समर्पित कर दिया है। मैं न केवल गोपियों के लिए चिन्तित हूँ, अपितु जो भी प्राणी मेरे लिए समाज, मैत्री, प्रेम और व्यक्तिगत सुखों का त्याग करता है, उन उत्कृष्ट भक्तों की मैं हर परिस्थिति में रक्षा करता हूँ। गोपियां मेरे सर्वोत्कृष्ट भक्तों की श्रेणी में आती हैं। वे इस प्रकार सदैव मेरा चिन्तन करती हैं कि वे मेरे वियोग में व्याकुल और मृतप्राय रहती हैं। उनके प्राण, उनके जीवन, उनका सर्वस्व मैं ही हूँ। मेरे लिए उन्होंने अपने पति-पुत्र एवं अन्य सगे-संबन्धियों को छोड़ दिया है। उन्होंने मन, बुद्धि और शरीर से मुझे ही अपना प्रियतम – नहीं, नहीं अपनी आत्मा मान रखा है। वे केवल यह सोचकर जीवित हैं कि मैं शीघ्र ही उनके पास लौट रहा हूँ। परम सखे! उन तक मेरा संदेश पहुंचाना कि मैं भी उन्हें उन्हीं की भांति याद करता हूँ, पर नियति द्वारा नियत अपने कर्त्तव्य के कारण विवश हूँ। सदैव निकट रहना ही प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं है। अपने कर्त्तव्य-पथ पर चलते हुए मैं सदैव उनका स्मरण करता रहूंगा। उनका प्रेम मेरे जीवन की सबस बड़ी धरोहर के रूप में सदैव सुरक्षित रहेगा। इस पृथ्वी पर जब भी कोई श्रीकृष्ण का स्मरण करेगा, उसे गोपियों को भी याद करना ही पड़ेगा। राधारानी और गोपियों के बिना कृष्ण अधूरा है। नियति ने अगर चाहा, तो मैं गोकुल अवश्य वापस जाऊंगा।”

उद्धव परम ज्ञानी थे। उन्होने श्रीकृष्ण के मनोभावों को समझ लिया, उन्हें प्रणाम किया और तत्काल गोकुल के लिए प्रस्थान किया। इधर भगवान भास्कर पश्चिम के क्षितिज में डुबकी लगाने के लिए आतुर हो रहे थे, उधर उद्धव ने गोकुल में प्रवेश लिया। सभी गौवें गोचर-भूमि से लौट रही थीं। उद्धव का रथ गोरज से आवृत्त हो गया। गोकुल की समस्त धरती धवरी गौवों और बछड़ों से भरी थी। गोदोहन की ध्वनि सायंकाल पूरे वातावरण में व्याप्त थी। वृन्दावन का प्रत्येक घर सूर्यदेव तथा अग्नि देव की उपासना के लिए सज्जित था। प्रत्येक घर में अतिथियों, गौवों, ब्राह्मणों और देवताओं के स्वागत का प्रबंध था। दीपक के प्रकाश में सारे घर प्रकाशित और पवित्र हो रहे थे। धूप की सुगंध से पूरा वृन्दावन महक रहा था। सर्वत्र पुष्पों से भरे उत्तम उद्यान थे, चहचहाते पक्षियों का कलरव था तथा मधुमक्खियों की गुनगुनाहट थी। सरोवरों में कमल-पुष्प, बत्तख तथा हंस विराजमान और शोभायमान थे।

उद्धव की कद-काठी, रंग और हाव-भाव श्रीकृष्ण से मिलते-जुलते थे। गोधूलि बेला में जब उन्होंने वृन्दावन में प्रवेश किया, ग्वाल-बालों ने उन्हें देखते ही समाचार फैला दिया कि श्रीकृष्ण मथुरा से आ गए हैं। सुनते ही मां यशोदा का हृदय हर्ष से अभिभूत हो गया। वे सारा काम छोड़कर घर से निकल पड़ीं। हर्षित नन्द बाबा आगे-आगे चले और प्रसन्न बदन ग्वाल-बाल पीछे-पीछे। गोपियों का समूह सागर की लहरों की तरह उमंगित होकर चल पड़ा। गायें हर्षित होकर थनों से दुग्ध स्रावित करने लगीं और बछड़े भी चौकड़ी भरते हुए उछल-कूद करने लगे। बाल-वृद्ध, तरुण-तरुणियों के अंग-अंग से प्रसन्नता फूट रही थी। उद्धव को श्रीकृष्ण समझकर गोपियां पुलकित हो रही थीं, परन्तु रथ के निकट आने पर वे ठगी सी रह गईं। शोक का ज्वार इतना प्रबल था कि अधिकांश मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ीं। श्रीकृष्ण से उनके मिलन की अभिलाषा स्वप्न में प्राप्त राज्य के समान मिथ्या बन कर रह गई।

नन्द बाबा बड़े प्रेम से उद्धव को अपने घर ले आये। श्रीकृष्ण के प्रतिनिधि के रूप में समस्त व्रज ने उनका स्वागत किया। सामान्य औपचारिकताओं के पश्चात्‌ नन्द जी उनके समीप ही बैठ गए। अपनी व्यग्रता को यथासंभव छिपाते हुए उन्होंने पूछा –

“प्रिय उद्धव! श्रीकृष्ण के संदेशवाहक के रूप में आपको अपने बीच पाकर हमें अत्यन्त प्रसन्नता हुई। हमारा हृदय श्रीकृष्ण-बलराम का समाचार जानने के लिए अत्यन्त अधीर है। आप कृपया बतायें कि मेरे परम मित्र वसुदेव जी कैसे हैं? लंबी यातना के बाद वे अब कंस के कारागृह से मुक्त हो गए हैं। निश्चित रूप से वे अपने दोनों पुत्रों, मित्रों और परिजनों के साथ अत्यन्त प्रसन्न होंगे। मुझे उनकी कुशलता विस्तार से बताइये। श्रीकृष्ण वहां पर सकुशल और सहज तो है न? क्या वह वृन्दावन में रहने वाले अपने  माता-पिता, सखाओं और गोपियों को अब भी याद करता है? ऐसा तो नहीं कि अपने गोवर्धन पर्वत, अपनी गोचर भूमि को उसने विस्मृत कर दिया हो? क्या निकट भविष्य में वह अपने संबन्धियों और सखाओं से मिलने अपनी इस पवित्र भूमि पर पुनः आयेगा?  हम उसके उन्नत नासिका और कमल-नयनों वाले सुन्दर मुखमंडल को देखने के लिए लालायित हैं। हम सबको याद है कि किस प्रकार उसने हमें दावानल से बचाया था और यमुना में रहने वाले कालिया नाग से हमारी रक्षा की थी। हम सदैव केवल यही चिन्तन करते रहते हैं कि इतनी सारी भयानक स्थितियों में हम सबको सुरक्षा प्रदान करने के लिए उसने क्या नहीं किया? हम सब उसके अत्यन्त आभारी हैं। हे उद्धव! हम जब भी श्रीकृष्ण के ललित मुखमंडल, उसके कमल-नयनों और उसकी विभिन्न लीलाओं का ध्यान करते हैं, तो हमारे सारे क्रिया-कलाप रुक जाते हैं …………….।”

श्रीकृष्ण के अलौकिक कार्यों का वर्णन करते-करते नन्द जी धीरे-धीरे व्याकुल होते गए। उनका कंठ अवरुद्ध हो गया और नेत्रों से अश्रु-वर्षा होने लगी। माँ यशोदा भी समीप बैठकर नन्द जी की बातें सुन रही थीं। श्रीकृष्ण की एक-एक लीला सुनकर उनके नेत्रों से आंसू बहते जाते थे और पुत्र-स्नेह की बाढ़ से उनके स्तनों से दूध की धारा बहती जा रही थी। फिर भी स्वयं पर नियंत्रण रख उन्होंने उद्धव से प्रश्न किया –

“प्रिय उद्धव! सच-सच बताना – क्या गोपाल कभी अपनी इस माँ को याद करता है? सगी माँ से मिलने के बाद अपनी धाय माँ को अब वह क्यों याद करने लगा? नहीं, नही, ऐसा नहीं हो सकता है। वह मेरा लाल है। वह मुझे कभी नहीं भूल सकता। हमलोगों ने अनजाने में न जाने कितनी भूलें की हैं। स्वयं नारायण मेरे घर आये लेकिन मैंने उन्हें एक सामान्य बालक ही समझा। मैंने उसे ओखल से बांधा, कान उमेठे और माखन-चोरी का इल्जाम लगाया। महर्षि गर्ग ने हमें संकेत तो दिया था, परन्तु नित्य के क्रिया-कलाप और दुःख-दर्दों के साथ हम श्रीहरि के महात्म्य को ही भूल गए। पर अब उससे बिछड़ने पर हमें दिन-रात का शूल हो गया है। पता नहीं वह अवसर फिर कब आयेगा जब हम श्याम को पुनः गोद में लेकर स्नेह कर सकेंगे। हे उद्धव! सभी कहते हैं कि मैं उसकी माँ नहीं हूँ। तुम्हीं बताओ, क्या मैंने उसे अपना दूध नहीं पिलाया है? प्रसव के बाद जब मैंने अपनी आँखें खोलीं, तो वह मेरी ओर देखकर मंद-मंद मुस्कुरा रहा था। मैं कैसे मान जाऊं कि मैंने उसे जन्म नहीं दिया है?  लोग मुझपर अनावश्यक दोष लगा रहे हैं। पर यह बताओ – व्रज में रहते हुए श्रीकृष्ण किसके घर दूध-दही और मक्खन खाने जाता था? किन सखाओं के साथ हाथ में लकुटि लिए गाय चराने जाता था? किस गोपी को हाथ पकड़कर यमुना के किनारे रोक लेता था? ये सारे कार्य उसने मेरे घर में रहते हुए ही किए थे। मेरे लिए उसके बिना जीवित रहना असंभव है। हे उद्धव! उससे कहना – एकबार मिलकर मेरे हृदय के शूल को मिटा दे।

मातु यशोदा इसके आगे कुछ भी नहीं कह पाईं। भावावेश में मूर्च्छित होकर धरती पर गिर पड़ीं।

 

बिपिन किशोर सिन्हा

B. Tech. in Mechanical Engg. from IIT, B.H.U., Varanasi. Presently Chief Engineer (Admn) in Purvanchal Vidyut Vitaran Nigam Ltd, Varanasi under U.P. Power Corpn Ltd, Lucknow, a UP Govt Undertaking and author of following books : 1. Kaho Kauntey (A novel based on Mahabharat) 2. Shesh Kathit Ramkatha (A novel based on Ramayana) 3. Smriti (Social novel) 4. Kya khoya kya paya (social novel) 5. Faisala ( collection of stories) 6. Abhivyakti (collection of poems) 7. Amarai (collection of poems) 8. Sandarbh ( collection of poems), Write articles on current affairs in Nav Bharat Times, Pravakta, Inside story, Shashi Features, Panchajany and several Hindi Portals.

One thought on “यशोदानंदन-५५

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत मार्मिक कहानी !

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