जीवात्मा
आज फिर घर के आँगन में
खिला हैं फूल तेरा चेहरा
‘गुलाब’ खिल उठा हैं मन
महकने लगा ये तन
आया हैं याद तेरा वादा आज ही मिलने का
जो हैं सूचक मेरे ज़िंदा होने का
सोचती हूँ “भेंट” तुम्हे क्या दू
निहारती हूँ गुलाब
भर लेती हूँ मुट्ठी
चल पड़ती हूँ तुमसे मिलने की राह में
वही मौरश्री के आलिंगन में
अम्बुआ की छाँव की जन्नत
लो फिर टूट गया तेरा वादा
श्याम तुम नही यंहा
आँख पर रोई नही हैं ।
क्यूंकि खोल दी मुट्ठी
बिखर गई हैं ख़ुशबू
महक रही हैं चहु ओर गगन में
चारों दिशायें कर रही हैं उदघोष
तुम्हारे आगमन का
जीवात्मा
जाओ सृष्टि का श्रंगार बनो
— चन्द्रकान्ता सिवाल ‘चंद्रेश’