आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 42)

28.10.1990 (रविवार)

ये पंक्तियाँ मैं टोकियो से दिल्ली उड़ान के दौरान लिख रहा हूँ। मेरी पिछली रात उसी तरह सीटों पर सोते हुए बीती, जैसे इससे पहली रात बीती थी। आज सुबह के समय कुछ ठंडक मालूम पड़ी हालांकि इतनी नहीं कि तकलीफ हो। सुबह 5 बजे उठकर बाथरूम गया। कुल्ला-दातुन किया। दो दिन से नहाया नहीं हूँ, इसलिए कुछ आलस महसूस हो रहा था। परन्तु वहाँ नहाने की कोई सम्भावना नहीं थी, इसलिए मजबूरन हाथ-मुँह धोकर पेन्ट-शर्ट बदल लिये। इस समय यही जोड़ी धुले कपड़ों की मेरे पास रह गयी है। कल दिल्ली या आगरा पहुँच कर नहाऊँगा।

मेरी दो रातें तो इन्तजार करते आसानी से बीत गयीं, परन्तु आज का दिन बिताना मुश्किल लग रहा था। कुछ चिन्ता भी थी कि पता नहीं आज की उड़ान मिलेगी या नहीं। सौभाग्य से वह नौबत नहीं आयी। अल इटालिया का काउन्टर करीब 1 बजे खुला। तब तक मैं कई बार आकर देख गया था कि काउंटर खुला या नहीं खुला। वहाँ कुछ टी.वी. के पर्दे लगे हुए थे। जिन पर प्रत्येक उड़ान की नवीनतम स्थिति की सूचना आती रहती है। उससे मुझे पता चल गया था कि हमारी उड़ान लगभग समय पर होगी।

पहले मैंने अपने सभी येन डालरों में बदलवाये। मैं ट्रैवलर्स चेक चाहता था, परन्तु उसने केवल नकद दिये। इससे मुझे कुछ घाटा पड़ा, पर ऐसे घाटों की चिन्ता किसे है? इस समय मेरे पास 100 येन भी नहीं रह गये थे, जिनसे मैं एक बोतल रस भी पी सकता। मैं कुछ सिक्के बचाना भूल गया था। खैर, पानी पी कर काम चलाया।

ठीक 1.15 बजे मैं अल इटालिया के काउन्टर पर गया। सौभाग्य से वहाँ केवल 5 मिनट में मेरा काम हो गया। ये लोग काफी दक्ष होते हैं, खासतौर से जापानी लड़कियों की दक्षता का जवाब नहीं। वहाँ से मैं एमीग्रेशन, कस्टम वगैरह से निबटने गया। उसमें भी मुझे मुश्किल से 10 मिनट लगे। यानी ठीक 1 बज कर 45 मिनट पर मैं लाबी में बैठा जहाज आने का इन्तजार कर रहा था। वह अपने समय से कुछ देरी से आया, परन्तु चला ठीक समय पर।

दो-तीन दिन से मैंने ठीक से खाना नहीं खाया था। आज उड़ान शुरू होते ही बढ़िया खाना खाने को मिला, जिससे तन-मन तृप्त हो गया। यह जहाज हांगकांग, दिल्ली होता हुआ रोम जायेगा। आज रात को 11:30 बजे दिल्ली पहुँचूँगा। वहाँ से आगरा पहुँचना पड़ेगा। वहाँ भी थोड़ी मुश्किल होगी। पर अभी तो मैं इसलिए प्रसन्न हूँ कि मैं 48 घंटे की स्वघोषित कैद से मुक्त हूँ। सौभाग्य से मेरा ज्यादा खर्च भी नहीं हुआ। मुश्किल से 300 रुपये का घाटा पड़ा, परन्तु जो मानसिक कष्ट हुआ था, उसकी कोई कीमत नहीं लगायी जा सकती।

रास्ते में हमारा जहाज हांगकांग अड्डे पर स्थानीय समय के अनुसार रात्रि 8 बजे उतरा। वहाँ लोगों को जहाज ठहरने के समय तक हवाई अड्डे की दुकानों में घूमने की इजाजत है। इसलिए कई लोग जा रहे थे। जहाज के कप्तान वगैरह ने मुझे भी जाने के लिए कहा। मैं चला गया। हमें हवाई अड्डे की इमारत में घुसते समय एक ट्रांजिट पास दिया गया था, जो लौटने में काम आया। वहाँ अनेक विलासिता की वस्तुएँ बिक रही थीं बिना टैक्स तथा ड्यूटी के। लोग जिस तरह उन पर टूटे पड़ रहे थे उससे मैंने अनुमान लगाया कि ये चीजें सस्ती होनी चाहिए। वहीं कुछ भारतीय भी मिले जो हांगकांग से दिल्ली लौट रहे थे। मैंने उनसे पूछा कि क्या ये चीजें वास्तव में सस्ती हैं। उन्होंने भी कहा- हाँ। मगर अफसोस कि मैं अपने डालर बैग में जहाज पर ही छोड़ आया था, इसलिए कुछ खरीद नहीं सका।

हांगकांग एक बहुत सुन्दर शहर है। जब हमारा जहाज उतर रहा था, तो मैंने खिड़की से देखा कि वह शहर समुद्र के किनारे पहाड़ों और नदियों के बीच बसा हुआ है। हवाई अड्डा भी समुद्र के ठीक किनारे पर है। समुद्र का लेवल भी ज्यादा नीचा नहीं है, परन्तु मालूम पड़ता है कि उसका पानी हवाई अड्डे पर नहीं आता। मुझे हवाई अड्डे का परिसर पसन्द आया। हांगकांग शीघ्र ही चीनी नियन्त्रण में जाने वाला है। यहाँ की लड़कियां भी जापानी लड़कियों से कम सुन्दर नहीं है। मालूम पड़ता है कि यहाँ भारतीयों की संख्या भी काफी है, क्योंकि यहाँ से अनेक भारतीय दिल्ली के लिए चढ़े हैं। टोकियो से तो मैं अकेला ही चढ़ा था। मैंने यह तय किया कि अगली बार हांगकांग, सिंगापुर, बैंकाक की तरफ आने का मौका लगा तो तीनों शहर देखकर ही जाऊँगा। अपने आधे घंटे का समय हांगकांग में बिताने की मुझे बहुत खुशी और संतोष है।
यहाँ भी अल इटालिया के विमान कर्मी एअर इण्डिया की तुलना में बहुत ही विनम्र तथा सहयोगात्मक हैं। एअर इण्डिया वाले काम देर से करते थे, ये फटाफट करते हैं।

इस समय यहाँ 8:30 बजे हैं दिल्ली में शायद 6 या 6:30 बजे होंगे, जबकि जहाज वहाँ 11:30 बजे पहुँचेगा। यानी कम से कम 5 घंटे की उड़ान और है। पता चला है कि इस उड़ान के दौरान हमें फिर डिनर दिया जायेगा। देखेंगे।

(जारी…)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

2 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 42)

  • Man Mohan Kumar Arya

    यात्रा समाप्ति पर है। घर आना स्वर्ग में आने की तरह ही सुखद होता है। रामायण में भी श्री रामचन्द्र जी ने लक्ष्मण जी से कहा था कि माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर होती है। आपके साथ हमने भी जापान की सैर की, इसके लिए हार्दिक धन्यवाद। आगे की यात्रा में भी हम आपके साथी रहेंगे। आगामी क़िस्त की प्रतीक्षा में।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मान्यवर !

Comments are closed.