बाल कविता

धरती तपती

तप्त तवा-सी धरती तपती।
अम्बर से है आग बरसती।।
गली-गली जल रही शहर की।
कली-कली सूखी उपवन की।।
साँय-साँय लू-लपट लगाये।
तरु-छाया भी सिमट सुखाये।।
पशु-पक्षी सब फिरें तड़पते।
इधर उधर छाया को तकते।
सूखे पोखर-ताल तलैया।
दिखती नहीं नदी में नैया।।
वट-पीपल की छाँव सुहाती।
नीम-छाँव हर मन को भाती।।

— प्रमोद दीक्षित ‘मलय‘

*प्रमोद दीक्षित 'मलय'

सम्प्रति:- ब्लाॅक संसाधन केन्द्र नरैनी, बांदा में सह-समन्वयक (हिन्दी) पद पर कार्यरत। प्राथमिक शिक्षा के क्षेत्र में गुणात्मक बदलावों, आनन्ददायी शिक्षण एवं नवाचारी मुद्दों पर सतत् लेखन एवं प्रयोग । संस्थापक - ‘शैक्षिक संवाद मंच’ (शिक्षकों का राज्य स्तरीय रचनात्मक स्वैच्छिक मैत्री समूह)। सम्पर्क:- 79/18, शास्त्री नगर, अतर्रा - 210201, जिला - बांदा, उ. प्र.। मोबा. - 9452085234 ईमेल - [email protected]

One thought on “धरती तपती

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता !

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