धरती तपती
तप्त तवा-सी धरती तपती।
अम्बर से है आग बरसती।।
गली-गली जल रही शहर की।
कली-कली सूखी उपवन की।।
साँय-साँय लू-लपट लगाये।
तरु-छाया भी सिमट सुखाये।।
पशु-पक्षी सब फिरें तड़पते।
इधर उधर छाया को तकते।
सूखे पोखर-ताल तलैया।
दिखती नहीं नदी में नैया।।
वट-पीपल की छाँव सुहाती।
नीम-छाँव हर मन को भाती।।
— प्रमोद दीक्षित ‘मलय‘
बहुत अच्छी कविता !