नवोदय का सफर
मैं कोई लेखक नहीं हूँ, हाँ थोड़ा बहुत शब्दों में शब्दों को एक कतार में रखकर कुछ पंक्तियों का विस्तार कर देता हूँ। मिल गया है मुझे अपने जिन्दगी में बिताये हुए कुछ पल का भाग जिसको सफर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा मान बैठा हूँ और उसी हिस्से को शब्दों के जरिए इन पन्नों में समेटने की कोशिश किया हूँ बस यही है हमारी लेखनी जिसका नामकरण कर दिया हूँ- नवोदय का सफर।
अपने घर पर मकान के छत के ऊपर प्रतिदिन की तरह लालटेन के प्रकाश में अपनी किताब के पन्ने उकेरकर पढ रहे थे। २४ जून वर्ष २०११ का दिन मुझे बहुत अच्छी तरह याद है। मैं नवोदय विद्यालय के साक्षात्कार से गुजर चुके थे।मुझे परिणाम का इन्तजार था। अपने विषय के किसी सवाल पर मेरी मानसिक क्रियाएँ शक्तियां लगाईं हुई थी, और उस सवाल को अपने अन्तिम चरण तक पहुंचाने की प्रयासरत थी।
तभी अचानक बगल में रखी हुई मोबाइल की घन्टी की आवाज़ आईं। और बीच में ही पढाई से मोह भंग हो जाता है और मैंने मोबाइल को हाथ से उठाकर देखा तो नम्बर जाना -पहचाना नहीं था समय ९:४५ सायंकाल हो रहा था। ज्यों ही मोबाइल नंबर को स्वीकार किया तभी उधर आवाज़ आती है कि -आप रमेश कुमार सिंह जी बोल रहे हैं। तो मैं बोला -हाँ जी, आप कौन ? तभी उधर से आवाज़ आती है- ‘मैं जवाहर नवोदय विद्यालय जपला -२ पलामु से प्राचार्य बोल रहा हूँ। आपका चयन हमारे विद्यालय में टी०जी०टी० हिन्दी शिक्षक के पद पर किया गया है। आप विद्यालय में आकर योगदान कर अविलम्ब अपना कार्य शुरू करें।’
उतना सुनने के बाद ही मेरे खुशियों का ठिकाना न रहा, और २८ जून को पता लगाने के लिए कर्मनाशा स्टेशन से, बरकाकाना पैसेन्जर पकड़ कर जपला की तरफ चल देते हैं। ट्रेन में बैठे हुए रहे थे कि -कैसा विद्यालय होगा कहाँ होगा। क्या सच्चाई है। यही सब मन में उधेड़बुन चल रहा था। तब तक गाड़ी, डेहरी स्टेशन पहुँच चुकी थी। वहाँ ज्यों ही गाड़ी गया रेल-पथ को छोड़ती है। तब मुझे ऐसा लगा कि मैं किसी विरान जगहों पर जा रहा हूँ। जंगली इलाका का आभास हो रहा था। खिड़की के रास्ते मेरी नज़र बाहर के दृश्यों पर जा पहुंचती है। जो चीजें देखतें हैं शायद वही सब कुछ किताबों में पढ़े हुए थे। पलामु जिला का वही छायावृष्टी भाग वाला इलाका जहां कि भूमि पानी के लिए बराबर तरसती रहती है।पानी के बिना अपना उपजाऊ पन शक्ति को छोड़ चुकी है विरान हो चुकी है उसे बंजरभूमि की संज्ञा दे दी गयी है।
आस-पास ट्रेन में ही बैठे लोगों से में पुछा तो जानकारी मिली कि इधर के ही लोग कहीं भी किसी के यहाँ कम मजदूरी पर कार्य करने को तैयार हो जाते हैं क्यों कि इधर आज भी भुखमरी है। गाड़ी आगे की तरफ अपनी रफ्तार से चल रही थी। मैं यही सब देखते जानकारी लेते जा रहा था। तभी बिच में एक छोटा सा पहाड़ दिखाई दिया। उस पहाड़ के अन्दर एक सुरंग थी जिसमें गाड़ी अन्दर से होकर गुजरती हुई पार की तभी मेरी धड़कन और तेज हो गई कि मैं कहाँ जा रहा हूँ। लेकिन क्या? मेरा पहला जाब था छोड़ भी नहीं सकता था- अच्छा पद, अच्छा नौकरी, अच्छा विद्यालय इसलिए नौकरी को पकड़ना मेरी मजबूरी थी। डर मुझे लग रहा था लेकिन डर को अपने अन्दर दबायें हुए था ।
पहाड़ियों को, बंजरभूमि को पार करते हुए गाड़ी अपने लक्ष्य की तरफ़ क्षण-प्रति-क्षण अग्रसर बढ रही थीं। तभी किसी यात्री के मुखारबिन्दु से आवाज़ आईं कि जपला स्टेशन आने वाला है। तभी मैं प्राकृतिक दृश्यों से समझौता कर अपनी दृष्टि को समेटना प्रारम्भ कर दिये। समेटने में कुछ समस्याओं से जुझना पड़ा लेकिन समेट लिया। तभी गाड़ी स्टेशन पर रूक जाती है और मैं प्लेट फार्म पर उतर जाता हूँ मैं वहाँ के लिए अजनबी था । आदमी से लेकर इलाका तक सब अलग तरीके के दीख रहे थे।
फिर मैं प्राचार्य महोदय के यहाँ कॅाल किया और उनके बताये हुए रास्ते के अनुसार चलना प्रारम्भ कर दिया। एक आटो रिक्शा वाले को पकड़ा और बोला कि मुझे नवोदय विद्यालय ले चलोगे। तभी वो जबाब दिया क्यों नहीं, मेरा यही तो काम है । कितनी दूर है- मैं बोला। लगभग तीन किलोमीटर है।
मैं विद्यालय पहुँच गया वहाँ देखा एक झारखंड सरकार के कल्याण विभाग का छात्रावास में नवोदय विद्यालय स्पेशल चल रहा था । पहुँचते ही एक गार्ड एवं चपरासी से मुलाकात हुई वे लोग मुझे थोड़ी देर बैठने के लिए कहा।मैं बैठ गया कभी विद्यालय के बारे में तो कभी उन नये लोगों के बारे में इसी उधेड़बुन में था तभी चपरासी आया और बोला कि अन्दर साहब बुला रहे हैं। मैं अन्दर गया साहब के साथ बातचीत हुई परिचय हुआ। पढने-पढाने के सम्बन्ध में बातें हुई।आवास से भी सम्बन्धित बातें हुई। और उसी दिन विद्यालय में योगदान भी कर लिये। योगदान करने के उपरांत मैंने प्राचार्य महोदय से अनुरोध किया कि मुझे अपने रहने खाने एवं कुछ सामान वगैरह लाने के लिए मुझे दो-तीन दिन की मोहलत दी जाए। ताकि मैं अपने व्यवस्था के साथ रह सकूँ।
मुझे छुट्टी मिल जाती है। मैं वापस घर आ जाता हूँ। एक तरफ खुश था, दूसरी तरफ़ अन्जान जगह होने के नाते खराब भी लग रहा था। लेकिन जो होने वाला है वो होकर ही रहता है। फिर मैं वापस एक जुलाई २०११ को विद्यालय में दैनिक उपयोग करने वाला सामान लेकर पहुँच गया। और उसी दिन विद्यालय के बच्चे अपने घर से छुट्टी बिताकर अपनी पढ़ाई पुनः करने के लिए लगभग ७०% सायंकाल तक आ जाते हैं । हम भी, बच्चों के लिए अन्जान थे बच्चे हमारे लिए भी अंजान थे।
दूसरे दिन हमारे सभी साथी विद्यालय में उपस्थित हो जाते हैं। सभी शिक्षकों को प्राचार्य महोदय के माध्यम से गोष्ठी बुलाईं गई। उस गोष्ठी में प्राचार्य महोदय के माध्यम से शैक्षिक गतिविधियां, आवासीय एवं अन्य कार्य क्षेत्रों से अवगत कराया गया। और सभी लोगो को अपनी-अपनी जिम्मेदारियां सौप दी गई। हमारे सभी शिक्षक साथियों को अलग-अलग जिम्मेदारी दी गई थी जिसमें हमें फर्निचर प्रभारी के साथ -साथ अरावली हाउस का हाउस मास्टर की जिम्मेदारी दी गई थी। और समय-सारणी तैयार कर पढाई-लिखाई का सिलसिला शुरु हो जाता है।सब लोग आपस में एक परिवार की तरह रहने लगे और आनंद के साथ एक-एक पल , एक-एक दिन बीतने लगा। बिच-बिच में थोड़ी समस्या आईं लेकिन जैसे ही आईं वैसे ही उसके साथ निदान भी होता गया।
सब-कुछ ठिक चल रहा था लेकिन कमी थी एक २४ घण्टे की जिम्मेदारी थी। उस विद्यालय में इसी कमी के वजह से कभी -कभी मन कुन्ठित हो जाता था। अच्छा नहीं लगता था लेकिन करें तो क्या करें- मन, कार्यक्षेत्र, नौकरी, अपनी समस्या का सामंजस्य स्थापित कर चलना ही पड़ता था। इसी बीच हमें कई नवोदय विद्यालय पर जाने का मौका मिला और वहाँ से कुछ कार्यकरने का अनुभव प्राप्त हुआ ।इतना ही नहीं बल्कि अपनी जिम्मेदारी के साथ-साथ अपने कर्तव्य के प्रति कर्मठ रहने की सीख मिली।
वास्तव में ऐसे जगहों पर रहने से अच्छा व्यवहार अच्छी सीख एक दूसरे के प्रति अच्छा सहयोग सीखने को मिलता है। आज वो सब कुछ याद है। जो वहाँ हम लोग साथ रहे, साथ में विचरण किये, साथ में मंथन किये, आज सभी बातें हृदय के रास्ते से होकर मानसिक पटल पर होते हुए इस पन्नों में आकर सिमट गई।
— रमेश कुमार सिंह
अच्छा संस्मरण सर जी …
रोचक संस्मरण ! ऐसी परिस्थितियाँ सभी के सामने आती हैं. कुछ बनने के लिए नए परिवेश में जाना पड़ता है और फिर स्वयं को उसके अनुकूल ढालना पड़ता है. जो इसमें सफल होता है, वही जीवन में सफलता पाता है.
हौसला अफजाई के लिए बहुत बहुत धन्यवाद एवं आपका आभार!!