मेरी कहानी – 21
यह हमारे खेत जो गाँव से दो किलोमीटर थे इस को राम सर वाली ज़मीन कहते थे जैसा कि मैं पहले भी लिख चुका हूँ। रात को जब मैं हल का फाला ले कर आया था तो आते ही चारपाई पर लेट गया था । सोते सोते मुझे वोह दो आदमी जो शमशान भूमि में थे उन को याद करके डर लगता रहा और फिर मैं सो गया। शायद उस दिन मुझे छुटी होगी और दादा जी ने मेरे सो कर उठने तक खेत में हल चलाकर खत्म कर लिया था। गाँव को वापिस जाने के लिए दादा जी ने बैलों को छकड़े के आगे जोत दिया और गाँव को चलने लगे। बैलों के गले में बंधी घंटीआं वजने लगीं। कुछ दूर जा कर दादा जी ने छकड़ा खड़ा कर दिया और मुझे एक खेत की तरफ इशारा करके कहने लगे “इस वर्ष हम ने यह खेत भी बीजना है “.
इस खेत जिस को कभी भी बीजा नहीं गिया था इस में घास बहुत था और इस में पत्थर भी थे। यह खेत दूसरे खेतों से काफी नीचा था जिस में बारिश से पानी इकठा हो जाता था शायद इसी लिए कभी बीजा नहीं गिया था। इस वर्ष दादा जी को क्यों इसे बीजने का खियाल आया मुझे कोई ज्ञान नहीं। कुछ दिनों बाद दादा जी ने इस खेत में हल चलाना शुरू कर दिया लेकिन इसकी जमींन बहुत सख्त थी। एक बैल के पैर से तो खून बहने लगा , शायद लोहे का फाला लग गिया था जो बहुत तीखा था । पहले तो इस खेत में हल चलाना ही मुश्किल था लेकिन जब सारे खेत में हल चल गिया तो इस में मट्टी के बड़े बड़े पत्थर जैसे ढेले बन गए। हर रोज़ स्कूल से वापिस आ कर मैं और दादा जी इन ढेलों को हथौड़ीओं से तोड़ते। यह ढेले बहुत सख्त थे, बहुत दिन तक हम इन्हें तोड़ते रहे, मेरे हाथों पर छाले पड़ गए जो कभी फिस कर उन में से पानी निकलने लगता जिस से मेरे हाथों में बहुत दर्द होता लेकिन इस दर्द की परवाह किये बगैर मैं ने काम जारी रखा। दादा जी को कभी बताया नहीं।
फिर एक दिन दादा जी ने इस खेत में गेंहूँ के बीज बो दिए। पड़ोसी किसान कह रहे थे,”ओ दादा यहाँ गेंहूँ नहीं होगी क्योंकि यह जमींन अच्छी नहीं, पथरीली है “. दादा जी मन के बहुत सख्त थे, जो मन में एक दफा आ गया वोह कर के ही छोड़ते थे। बीज को बोए कुछ ही दिन हुए थे कि हलकी सी बारिश हो गई जो खेत के लिए वरदान साबत हुई। कुछ ही दिनों में गेंहूँ उग आई और तेज़ी से बढ़ने लगी। यों यों गेंहूँ के पौदे ऊपर को आते, दादा जी देख देख कर खुश होते। अक्सर पड़ोसी किसान जिस में एक का नाम साधू था मुझे कहता “ओ बई तेरे दादा तो जादूगर है , पत्थरों में से भी अन्न उगा देता है। जैसे जैसे गेंहूँ के पौदे बढ़ते गए उन पौदों का रंग गूहड़ा यानी डार्क होता जा रहा था। डार्क रंग के अर्थ थे कि फसल बहुत अच्छी होगी। और यह बात सही निकली। यह गेंहूँ सब किसानों से बढ़िया थी। जब यह गेंहूँ अपनी चरम सीमा तक पहुंची सब हैरान हो गए। सब की गेंहूँ से यह गेंहूँ ऊंची हो गई थी। गेंहूँ के दानों के सिट्टे बड़े बड़े और दानों से भरे हुए थे। जब गेंहूँ के खेतों में सोने रंगी फसलें लहलहाने लगी तो सभी किसानों के चेहरों पर मुस्कराहट थी।
फसल पककर तैयार होने को थी, एक दो हफ्ते में फसल की कटाई शुरू होने वाली थी। एक दिन दादा जी राम सर से वापिस आये तो बहुत उदास थे और उनकी आँखों से आंसू बह रहे थे। मैं और बहन ने दादा जी से उदासी का कारण पुछा तो रोकर कहने लगे “रात को किसी ने इस खेत की गेंहूँ के सभी सिट्टे ऊपर से काट लिए थे, सारा खेत ही काट लिया, कुछ नहीं बचा”. पंचायत में अर्जी डाली गई लेकिन कोई पता नहीं चला कि गेंहूँ किस ने काटी थी। इस खेत में मैं और दादा जी ने अपना लहू पसीना बहाया था , इतनी सख्त मिहनत की थी जो आज तक मुझे इतने सालों बाद भी भूली नहीं। उस वक्त तो मैं एक बच्चा ही था जो इतना समझता नहीं था लेकिन आज बड़ा हो कर जब किसानों को आत्महत्याएं करते देखता हूँ तो मुझ से ज़्यादा उन का दुःख कौन जान सकता है ? इसी लिए तो उस बृक्ष पर लटकते हुए किसान को देख कर इतना दुःख हुआ।
हमारी ज़मीन बेशक दो जगह पर थी लेकिन कोई फसल जब पक्क जाती तो उस में से दाने तो निकालने ही होते थे , इस लिए हम गेंहूँ मक्की या ज्वार छकड़े पर लाद कर गाँव वाले कूंएं की जगह ले आते थे ताकि एक जगह ही काम हो। जब गेंहूँ को खेतों में से काटना होता था तो हर एक को जल्दी होती थी कि जल्दी जल्दी काट ली जाए क्योंकि बारिश अंधेरी का भी डर लगा रहता था जिस से सारी मिहनत बर्बाद होने का भय लगा रहता था। कई लोग जल्दी काम खत्म करने के लिए आवत रखा लेते थे। आवत के अर्थ थे बहुत लोगों को कटाई की मदद के लिए बुलाना। लोग इकठे हो कर गेंहूँ को काटने लगते और काटते काटते एक दूसरे से आगे जाने की कोशिश करते और साथ साथ कुछ गुनगुनाते भी जाते। अक्सर हम भी आवत बुलाते थे। एक दफा जब हमने आवत बुलाई तो राम सर वाली ज़मीन पर गेंहूँ काटने के लिए बुलाई क्योंकि यहां गेंहूँ के खेत ज़्यादा थे। इतने लोगों के लिए खाना भी बहुत ज़्यादा होता था, तो मेरी माँ बहन और कुछ पड़ोस की औरतें अपने सरों पर टोकरों में रोटीआं दाल सब्ज़ी घी शककर रख कर दो किलोमीटर पैदल चल कर जातीं। क्योंकि गर्मिओं के दिन बड़े होते हैं , इस लिए दिन में दो दफा खाना देने जाना पड़ता था और तीसरी दफा रात को घर में ही खाना खिलाया जाता था।
इस आवत का कारण एक और भी था कि एक खेत की गेंहूँ पहले ही चोर काट कर ले गए थे इस लिए और चांस लेना उचित नहीं था। शाम तक सारी गेंहूँ काट ली गई थी और उसे बंडलों जिसे भरीआं कहते थे में बाँध कर और चार पांच आवत वाले लोगों के छकड़ों पर लाद कर सारी गेंहूँ गाँव वाले कुएं पर ले आये। अब सभी लोग खुश थे और कुछ लोग दादा जी से देसी शराब की मांग कर रहे थे। दादा जी जानते थे , इसी लिए उन्होंने पहले ही कुछ बोतलें लाकर रखी हुई थीं। दादा जी खुद तो पीते नहीं थे लेकिन आवत वाले लोगों को तो खुश करना और उन का धन्यवाद करना बनता ही था। ढोल वाला भी आ गिया था और ढोल वजाना शुरू हो गिया। जब उन लोगों को कुछ सरूर आना शुरू हो गिया तो भंगड़ा पाने लगे और जोर शोर से ढोल वजने लगा। फिर नशे में हो कर ऊंची ऊंची दोहे गाने लगे. दोहे तो कोई ख़ास मुझे याद नहीं , बस एक ही याद है जो कुछ इस तरह था , दोहा लावां (लाऊँ ) दोहा लावां दोहा चढ़ गिया तूत ओ, बंसो मंगदी (मांगती ) मुन्द्री ( अंगूठी ) गेजो मंगदी सूट ओ हो। इस के बाद जोर जोर से ढोल वजने लगता और भंगड़ा पाते।
काफी रात हो चुक्की थी और सभी रोटी खाने के लिए घर आ गए। तरह तरह के खाने तैयार थे। पहले उन सब लोगों के हाथ धुलवाए गए फिर थालिओं में घी शककर , चावल और कौलिओं में दालें और सब्जीआं दी गईं। रोटी के वक्त बिलकुल शांत वातावरण था। सभी खा कर अपने अपने घर चले गए, ढोल वाले को भी पैसे दे दिए गए। अब हम ने गाँव वाले खेत की गेंहूँ खुद ही काटनी शुरू कर दी और साथ में एक चर्मकार को रख लिया। गेंहूँ काटना इतना मुश्किल तो नहीं था लेकिन सुबह से शाम तक बैठ कर दरांती से काटना होता था। काटते समय गर्मी बहुत मेहसूस होती थी, सारे कपडे पसीने से भीग कर चमड़े जैसे बन जाते थे। टांगों में इतनी दर्द होती थी कि खड़े होने के लिए कुछ वक्त लगता था। कभी कभी दरांती हाथ पे लग कर खून निकल आता लेकिन काम बंद नहीं होता था , खून अपने आप ही सूख जाता था। शरीर यह छोटे छोटे दुःख को झेलने के समरथ थे. कुछ ही दिनों में सारी गेंहूँ काट ली गई और एक बहुत बड़ा गेंहूँ का ढेर बन गिया। अब इस सारी गेंहूँ को बैलों से गाहना यानी उस में से गेंहूँ के दाने निकालने का काम शुरू करना था और यह काम करना तो एक जगह ही होता था लेकिन यह काम गेंहूँ की कटाई से भी ज़्यादा मुश्किल होता था। और इस में मौसम बुरा होने का खटका हमेशा ही बना रहता था। ( ऐ किसान मुठी में तेरा कालजा , बादलों में धियान ).
(चलता …..)
आज का पूरा वृतांत पढ़ा। आपने खून पसीना बहाकर पत्थरों वाली कठोर भूमि में जो फसल उगाई थी उसे चोर काट कर ले गए, यह पढ़कर दुःख हुआ। सारी उम्मीदे धरासाई हो गई। सुरक्षा न होने के कारण ऐसा हो गया जो बहुत दुखद है। शेष विवरण भी रोचक एवं मनोरंजक होने के साथ ज्ञानवृद्धि की दृष्टि से भी उपयोगी है। आजकल की शहरों में पैदा वा पली युवा पीढ़ी एवं धनवान लोग किसानों व मजदूरों के दुखों को नहीं जान, समझ व अनुभव कर सकते। धनवान व आधुनिक पीढ़ी तो सुख सुविधाओं के भोग व मौज मस्ती में ही व्यस्त है। इन्हे तो क्रिकेट से बढ़कर शायद और कुछ लगता ही नहीं है। आज की किश्त के लिए आपका आभार एवं धन्यवाद।
मनमोहन जी , आज के युवा लोग तो इन बातों में कोई दिलचस्पी नहीं लेते , इसी लिए कष्ट भी बड गए हैं . वोह चर्मकार जो कभी काम के लिए मिन्तें करते थे , उन के बच्चे अब इन कामों को नफरत करते हैं , पड़ लिख कर मोटर बाइक और मोबाइल लिए घुमते हैं . पंजाब में यू पी और बिहार से इतने लोग आ गए हैं कि हर काम उन्होंने संभाल लिया है . अगर यह लोग ना हों तो पंजाब का काम बंद हो जाए किओंकि पंजाब के मजदूर काम करने के लिए रजामंद नहीं . अगर करने को राजी भी होते हैं तो पैसे इतने मांगते हैं कि किसान अफोर्ड नहीं कर सकता . उस वक्त जो खेती का काम था , आज से बहुत अच्छा था किओंकि खर्चे कम थे और लोग एक दुसरे की मदद भी कर देते थे लेकिन आज तो किसान ने पहले ही इतना कर्जा लिया होता है कि फसल बर्बाद होने पर उन के लिए खुदकशी के बगैर कोई चारा नहीं रहता .
भाई साब, यह कड़ी पढ़कर आँखें नम हो गयीं. आपके दादाजी और आपने कितनी मेहनत से एक बंजर पथरीली जमीन को उपजाऊ बनाया और जब उसका फल आपको मिलने वाला था तो उसे चोर ले गए.
विजय भाई , इस खेत वाली बात बहुत दफा याद आती है , इस खेत का एक नाम भी था जो मुझे भूल गिया . वोह गेंहूँ का खेत अभी भी मेरी आँखों के सामने आ जाता है . जो गेंहूँ से दाने निकालने का काम था वोह शाएद सोमवार को आ जाएगा किओंकि वोह काम भी बहुत होता था .