कविता

अंतर द्वन्द

 

 

तन से नंगी, भूख से पीड़ित  भावी को

जब रोटी के टुकड़े पर लड़ते देखता हूँ,

मै इसका कारण सोचता हूँ, मैं इसका….।

 

लालच  की  आँधी में  हर  नैतिकता  को

जब मानवता, सुचिता को उड़ते देखता हूँ,

मै इसका कारण सोचता हूँ, मैं इसका….।

 

अंधभक्त मानव को, कलुषित माया रच,

जब चोर-उचक्कों को मै ठगते देखता हूँ,

मै इसका कारण सोचता हूँ, मैं इसका….।

 

भाग्य विवश अनुचित पद के पा लेने पर

जब अनचाहों को  मद में चलते देखता हूँ,

मै इसका कारण सोचता हूँ, मैं इसका… ।

 

ताकत की नव परिभाषा परिभाषित कर

जब सही-गलत का अर्थ बदलते देखता हूँ,

मैं इसका कारण सोचता हूँ, मैं इसका… ।

 

वैरागी जीवन अपनाने वालों को जब

माया  में  आकंठ  उतरते  देखता  हूँ,

मैं इसका कारण सोचता हूँ, मैं इसका….।

 

इक अश्लील सृजन को जब साहित्य बता

मैं पुरस्कार की राशि  निगलते  देखता हूँ,

मैं इसका कारण सोचता हूँ, मैं इसका… ।

 

संवेदी पीड़ाओं के बड़वानल से जब

अंतर्मन  को ‘होश’  दहकते देखता हूँ,

मै इसका कारण सोचता हूँ, मैं इसका… ।

मनोज पाण्डेय 'होश'

फैजाबाद में जन्मे । पढ़ाई आदि के लिये कानपुर तक दौड़ लगायी। एक 'ऐं वैं' की डिग्री अर्थ शास्त्र में और एक बचकानी डिग्री विधि में बमुश्किल हासिल की। पहले रक्षा मंत्रालय और फिर पंजाब नैशनल बैंक में अपने उच्चाधिकारियों को दुःखी करने के बाद 'साठा तो पाठा' की कहावत चरितार्थ करते हुए जब जरा चाकरी का सलीका आया तो निकाल बाहर कर दिये गये, अर्थात सेवा से बइज़्ज़त बरी कर दिये गये। अभिव्यक्ति के नित नये प्रयोग करना अपना शौक है जिसके चलते 'अंट-शंट' लेखन में महारत प्राप्त कर सका हूँ।

One thought on “अंतर द्वन्द

  • विजय कुमार सिंघल

    बढ़िया, विचारशील कविता !

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