बदली
अंबर की काली चादर मेँ छायी कुछ ऐँसी बदली,
चंद्रकिरण हैँ बहकी बहकी तारोँ की आशा मचली।
मेघोँ ने अंबर को घेरा घोर घटा बन छाए हैँ,
कलतक मँडराते जो काले बने श्वेत घन आए हैँ,
और तारोँ की बढ़ी पिपासा हृदय जले मन घबराए,
मेघ टोली के मध्य प्रियतमा जैसे छिप छिप है जाए,
डोरी मन की मन से जोड़े बहे शीतला चली पवन,
ग्रीष्म रात के प्रथम पहर मेँ कर पेड़ोँ का आलिँगन,
रही बिखेरे खुशबू फिर से रातरानी की डाली है,
धरा बनी हो मंदिर जैसे अंबर सजती थाली है।
___सौरभ कुमार
मधुर कविता !