यशोदानंदन-५९ (अंतिम कड़ी)
उद्धव को अब प्रतीत हुआ – राधा की ऊंचाई तो आकाश से भी ऊंची है।
“इधर देखो, उद्धव!” राधा ने अचानक उद्धव का ध्यान खींचा। एक अश्वत्थ वृक्ष के नीचे, कालिन्दी के प्रवाह के कारण चिकनी हुई एक शिला पड़ी थी।
“जिस दिन सभी ग्वाल-बाल श्रीकृष्ण के साथ मथुरा गए थे, उस दिन की पिछली रात को इसी शिला पर हम दोनों बैठे थे। मध्य रात्रि का समय रहा होगा। बड़ी देर तक हम एक-दूसरे को सिर्फ निहारते रहे। लंबे मौन को श्रीकृष्ण ने ही भंग किया –
‘राधे! प्रातःकाल हम मथुरा के लिए प्रस्थान करेंगे। मातु यशोदा, नन्द बाबा और वृन्दावन के समस्त श्रेष्ठ पुरुषों ने हमें विदा दे दी है, परन्तु तुम्हें ज्ञात है कि तुमसे विदा लिए बिना मैं मथुरा के लिए प्रस्थान नहीं कर सकता। अब तू भी राधा…… तू……।’
‘विदा?’ मेरे हृदय को अप्रत्याशित गहरा आघात लगा। मैं श्रीकृष्ण को अपलक ताकने लगी।
‘हां राधे! जन्म के कर्मों के अधीन तो रहना ही पड़ेगा न।’
‘कर्मों के चक्र के विषय में मुझे कुछ नहीं कहना श्रीकृष्ण! किन्तु क्या यह अनिवार्य है कि राधा भी कृष्ण को विदा करे? राधा आपको कभी विदाई नहीं दे सकती। क्या यह तथ्य आपको विदित नहीं?’
‘जानता हूँ राधा! और यह भी जानता हूँ कि मेरा मथुरा-गमन कोई साधारण प्रसंग नहीं।’
‘अर्थात्?’
‘हर युग में धर्म की पुनर्स्थापना के लिए मुझे शरीर धारण करना पड़ता है। फिर सुख-दुःख, मिलन-बिछोह आदि कर्मों के बंधन को स्वीकार करना पड़ता है। इस लोक में जिस विशेष प्रयोजन से मैं आया हूँ, उसे पूरा करने का समय आ गया है। मेरा गोकुल में रहना अब संभव नहीं है। अब मुझे सबसे विलग होना ही पड़ेगा।’
मैं तनिक विचलित हुई, फिर स्वयं को संभाला –
‘हे माधव! स्वयं आपको – श्रीकृष्ण को गोकुल से विलग कर दे, क्या ऐसी सामर्थ्य है भविष्य में?’
‘हां राधे! ऐसा भविष्य है। काल को किसने जीता है? राधा और कृष्ण के लौकिक संबन्ध भी आज अभी, इसी समय पूर्ण विराम पा जायेंगे। अब शरीरधारी कृष्ण शरीरधारिणी राधा से नहीं मिल सकेगा। युगकर्म के आरंभ का यही संदेश है। राधे! मुझे विदा दो।’ बड़े स्पष्ट शब्दों में श्रीकृष्ण ने अपनी बात रख दी।
‘जिस भविष्य को श्रीकृष्ण भी पार नहीं कर सकते, उस भविष्य को भला राधा कैसे जान सकती है? परन्तु ….. परन्तु….. हे मनमोहन! संबन्धों के पूर्णविराम की इस अविस्मरणीय घड़ी में एक तीव्र इच्छा जागृत हुई है – एक मानुषी वासना से मैं मुक्त नहीं हो पाई हूँ। क्या उसे पूरा करोगे, प्रियतम?’
‘ऐसी कौन सी इच्छा है राधे! ऐसी कौन सी वासना तुम्हें पीड़ा दे रही है? तुम निस्संकोच अपने हृदय की बात मेरे सम्मुख रख सकती हो। मैं तुम्हारी समस्त इच्छायें पूरी करूंगा।’ श्रीकृष्ण ने गुरु-गंभीर वाणी में राधा को आश्वस्त किया।
‘हे कृष्ण!, हे श्यामसुन्दर, हे गोपाल! हे गोविन्द ………!’ राधा का स्वर तरल होता जा रहा था। बहुत प्रयास के पश्चात् भी स्वर कंठ से बाहर नहीं निकल पा रहे थे। दोनों नेत्रों में सावन के बादलों की भांति अश्रुकण उमड़ रहे थे। कुछ घड़ी शान्त रहने के बाद स्वयं पर नियंत्रण स्थापित करते हुए पुनः बोली –
‘आपको रोकूं तो कैसे? भविष्य को कौन रोक सका है? मिलन की इस अन्तिम घड़ी में एक इच्छा शेष है, श्रीकृष्ण! मुझे ….. अपनी प्रिया को अपने चरणों में मस्तक रखकर कुछ आंसू बहा लेने दो, बस। फिर यह राधा भी तुम्हारी तरह अशरीरी बन जायेगी; श्रीकृष्ण से उसे कोई विलग नहीं कर सकेगा।’
श्रीकृष्ण के मुखमंडल पर वही मोहिनी मुस्कान फिर खिल उठी। मैं अपलक देखती रही।
बिना किसी प्रतिरोध के श्रीकृष्ण शिला पर बैठ गए। मैं श्रीकृष्ण के चरणों में झुक गई। यह अविस्मरणीय स्पर्श था देहधारी श्रीकृष्ण और देहधारिणी राधा का। चरणों पर राधा का स्पर्श और अश्रु का सिंचन …… मानुषी स्नेह की अद्वितीय अभिव्यक्ति। श्रीकृष्ण के अधरों पर मोहिनी मुस्कान खेलती रही, मयूरपंख हवा में डोलता रहा, उड़-उड़कर उत्तरीय राधा के सिर और कंधों पर अठखेलियां करता रहा।
उद्धव जी! जिस घड़ी श्रीकृष्ण ने मथुरा-गमन किया, उसी घड़ी से वे मेरे समग्र अस्तित्व में, रोम-रोम में व्याप्त हो गए। गोकुल के श्यामसुन्दर तो दर्शनीय थे, यह अदृश्य श्रीकृष्ण तो हर क्षण, हर स्थान पर उपस्थित हैं। पहले वे कभी-कभी मेरे साथ रहते थे, अब तो सदैव मेरे आसपास ही रहते हैं। विदा की बेला में जानते हो उद्धवव जी, उन्होंने क्या कहा था?”
“क्या कहा था राधा?” उद्धव जी की उत्सुकता धैर्य का बांध तोड़ रही थी।
“श्रीकृष्ण ने कहा था – ‘जबतक इस मधुर क्षण की स्मृति और मोहक सुगंध संजो कर रखोगी, तबतक कोई भी तुम्हें कृष्ण से विलग नहीं कर पायेगा। महाकाल भी इस क्षण को स्मरण कर थम जायेगा राधे!'”
राधा ने अपना कथन जारी रखा –
“ये आभूषण, ये पुष्प-मालायें, ये चन्दन-लेप और ये सुन्दर वस्त्र – श्रीकृष्ण को अत्यन्त प्रिय हैं उद्धव! उस क्षण मैं इसी रूप में थी और इसीलिए तो वही राधा, उसी कृष्ण के सम्मुख, उसी क्षण को जीती हुई, जी रही है। देखो उद्धव! श्रीकृष्ण ने त्याग उन्हीं का किया है, जिन्होंने कृष्ण को विदा दी थी।”
उद्धव जी विस्फारित नेत्रों से राधा को देखते रहे। उनके ज्ञान-चक्षु राधा ने अनायास ही खोल दिए थे।
राधे-कृष्ण! राधे-कृष्ण!! जय-जय, जय-जय राधे-कृष्ण!!!
बहुत सुन्दर उपन्यास ! इसमें कृष्ण की बाल लीलाओं का अच्छा चित्रण किया गया है. लेख महोदय को साधुवाद !