ग़ज़ल
जिसको धूप का डर रहता है,
वो अपने घर पर रहता है।
ये गुर्बत है प्यारे, इसमें,
सुबहो-शाम सफर रहता है।
तन में दिल और दिल में तू है,
घर के अंदर घर रहता है।
हवस की आँधी के चलते अब,
देखें कौन शजर रहता है।
दंगों में क्या होगा उसका,
वो तो बीच शहर रहता है।
दीवारों पर आस न लाओ,
दीवारों से डर रहता है।
आ बैठे हम पहलू में भी,
हिज्र का लेकिन डर रहता है।
दिल तो यार के दर जा बैठा,
‘होश’ दरे- महशर रहता है।
— मनोज पाण्डेय ‘होश’
ग़ज़ल अच्छी लगी.
बहुत अच्छी ग़ज़ल !