व्यापकता के महाशून्य में
बहते समय की
एक नदी का
बन संगीत
लिये अपने पगों मे
वन मयूरी का नृत्य
उस छोर पर
खड़ी हुई कब मिलोगी
जहाँ शब्दों की भीड़ में
प्रेम की अंतहीन कविता सी
बन जाओगी तुम असीमित
मै एक पंछी
कल्पनाओं के पंख -सहित
उड़ता रहता
तुम्हें तलाशने कवि -मन सा
इस छोर उस छोर सब ओर
होकर आशान्वित
व्यापकता के महाशुन्य में
मै विचरता
सआश्चर्य कभी एक पगडंडी सा
होकर भ्रमित
तुम कहती मै व्यस्त हूँ
वह कहता मै त्रस्त हूँ
कौन सुने इस
जग की सूनी अमराई मे ….
अब मेरा मीठा गीत
शीश पर धरी हुई
तुम रहना
जमीन पर बिखरे पत्तियों की हथेली से
भोर की किरणों कों बुहार कर
कोहरे की टोकरी मे..
टपके हुये मदभरे महुवो को
जब बीनते रहोगे
उसी समय मै पहुँचूँगा
प्रगट हो निर्झर के उदगम से
एक पवन के झोंके सा भींग
तुम हो मेरी
ऐसी चिर – कल्पना अति -प्राचीन
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब .
वाह !