आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 44)
उन दिनों श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन पूरे जोर-शोर से चल रहा था। राष्ट्रवादी विचारों का कार्यकर्ता होने के नाते मैं आर्यसमाजी और मूर्तिपूजा विरोधी होने पर भी इस मंदिर के लिए चल रहे आन्दोलन का पूरा समर्थन करता था। अखबारों में भी मैं इसी के पक्ष में अनेक प्रकार के तर्क देते हुए पत्र लिखता था। प्रायः मेरे ऐसे अधिकांश पत्र छप जाते थे। ‘जनसत्ता’ में तो एक समय मेरी ऐसी साख हो गयी थी कि मैं जो भी लिख भेजता था, वह सब छप जाता था, हालांकि थोड़ी काट-छाँट करके। वाराणसी में ‘गांडीव’ नामक एक सायंकालीन समाचारपत्र है, जो काफी संख्या में छपता है और दूर-दूर के गाँवों में जाता है। उसमें मेरे सभी पत्र बिना किसी काट-छाँट के छाप दिये जाते थे। कई बार मेरे राष्ट्रवादी विचारों को पढ़कर बहुत से सेकूलर हिन्दू और मुसलमान भाई तिलमिला जाते थे और अपनी तीखी प्रतिक्रियाएँ देते थे।
एक बार सरदार खुशवन्त सिंह ने अपने साप्ताहिक काॅलम ‘ना काहू से दोस्ती’ में श्रीराम जन्मभूमि मंदिर आन्दोलन की आलोचना करते हुए लेख लिखा था और अन्त में किसी शायर की निम्नलिखित पंक्तियाँ छापी थीं-
सरकुशी की थी किसी महमूद ने सदियों पहले,
इसलिए खूब खबर ली मेरे सिर की तुमने।
चंद पत्थर किसी बाबर ने गिराये थे कभी
ईंट से ईंट बजा दी मेरे घर की तुमने।।
इस लेख के जवाब में मैंने एक लम्बा और करारा लेख ‘बाबर के वारिस’ शीर्षक से कई अखबारों को भेजा था, जो कई जगह छप भी गया। इसमें मैंने ऊपर की पंक्तियों के उत्तर में निम्नलिखित पंक्तियाँ प्रस्तुत की थीं-
कासिम गोरी गजनवी बाबर के नाम रटकर
फिजां खराब की है मेरे शहर की तुमने।
श्रीराम के मुकाबिल बाबर को खड़ा करके
सद्भावना मिटा दी मेरे जिगर की तुमने।।
मेरे इस जवाब के छपने से मुसलमान भाइयों में बड़ी तीखी प्रतिक्रिया हुई। मेरे विरोध में अनेक पत्र छपे। एक मुसलमान सज्जन ने तो यहाँ तक लिख दिया कि ये ‘विजय कुमार सिंघल’ नाम के भाई अपनी बातों से हिन्दू-मुसलमानों के बीच की खाई को और भी चौड़ा किये दे रहे हैं।
उन दिनों ‘जनसत्ता’ के ‘चौपाल’ स्तम्भ में कानपुर के एक बीमा कर्मचारी सज्जन श्री त्रिलोकी नाथ शुक्ल की तुकबंदियाँ लगभग रोज ही छपा करती थीं। वे चौपाई-दोहे की तर्ज पर राजनीति के बारे में बहुत फूहड़ तुकबन्दी किया करते थे और उसके अन्त में यह पंक्ति जोड़ देते थे- ‘सरासर डंकमार की जय’। जब काफी समय तक उनकी तुकबंदियाँ बन्द न हुईं तो मैंने उन्हीं की तर्ज पर एक पैरोडी लिख मारी, जो नीचे दे रहा हूँ-
शुक्ला तिरलोकी के नाथा। करें रात-दिन पच्चीमाथा।।
नगरी कानपुर्र के बासी। तुक्कड़ कलमघिस्सु बकवासी।।
खोपड़ि सेकूलर मति मंदी। रोज करें घटिया तुकबंदी।।
राजनीति की कीचड़ दल-दल। तामें धसें लपकि सिर के बल।।
जनसत्ता के सम्पादक जी। छापें यह बक-बक नित-नित ही।।
भेजा चाटें नित्य ही कागज करें खराब।
पाठक पागल है गये अब तो रुको जनाब।।
सरासर बक्कवास कीजै?
यह पैरोडी मैंने ‘जनसत्ता’ को भेजी और उसकी एक प्रति सीधे शुक्लाजी को भी भेज दी। जैसी कि मुझे आशंका थी, ‘जनसत्ता’ ने तो उसे नहीं छापा, लेकिन शुक्ला जी पर उसका पूरा असर हुआ और कुछ दिन बाद ही ‘चौपाल’ में उनकी फूहड़ तुकबंदियां छपना बन्द हो गयीं।
उन्हीं दिनों उ.प्र. के मुख्यमंत्री मुलायम सिंह की सरकार ने निहत्थे कारसेवकों पर गोलियाँ बरसाकर सैकड़ों रामभक्तों के प्राण ले लिये थे। इसके बाद मैंने अखबारों में लिखा था कि ‘वर्तमान सरकारों के सत्ता में रहते हुए राम मंदिर बनने की कोई संभावना नहीं है। इसका सबसे अच्छा, सुनिश्चित और संवैधानिक उपाय यह है कि हम राममंदिर बनाने का समर्थन करने वाले दलों की सरकार बनवायें।’ इसके छपने के बाद मुझे एक अज्ञात सज्जन का एक पत्र मिला, जिसके पते में मेरा नाम विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ की जगह विजय कुमार सिंघल ‘सुजान’ लिखा हुआ था। यह पत्र अभी भी मेरे पास कहीं सुरक्षित रखा है।
मैं राममंदिर आन्दोलन के समर्थन में तो अपने विचार प्रकट करता ही था, तथाकथित सेकूलर दलों के नेताओं की भी खिल्ली उड़ाते हुए पत्र लिखता था, जो छप भी जाते थे। ऐसे लोगों के नामों की एक लम्बी सूची है- मुलायम सिंह, लालू प्रसाद यादव, चन्द्र शेखर, राजीव गाँधी, वी.पी. सिंह, सोनिया गाँधी, प्रियंका बढेरा (गाँधी), नरसिंह राव, चन्द्रास्वामी, भीमसिंह, बोम्मई, अजीत सिंह आदि। कांगे्रस की मैं विशेष तौर पर खिल्ली उड़ाता था। ऐसे चुने हुए पत्र मैं यहाँ दे रहा हूँ। राममंदिर आन्दोलन के समर्थन में भी मेरे अनेक पत्र छपे थे। मेरे पत्र यों तो बहुत से अखबारों में जाते थे और छपते भी होंगे, परन्तु मेरे पास सारी कतरनें नहीं आती थीं। मित्रों की कृपा से जो भी कतरनें मुझे उपलब्ध हो जाती थीं, उनको मैं एक डायरी में चिपका लेता था। ये पत्र उसी डायरी में से छाँटकर छापे गये हैं।
उन दिनों इंदौर से एक छोटा सा साप्ताहिक पत्र छपा करता था- ‘ज्ञान रंजन ट्रेजर’। यह मुख्य रूप से सामान्य ज्ञान बढ़ाने और कम्पटीशन आदि में मदद करने के उद्देश्य से छापा जाता था। इसके मालिक-सम्पादक-प्रकाशक थे श्री वाई.आर.एस. अर्थात् यशवन्त राव सम्बारे। वे मुझे बहुत मानते थे और मेरे कम्प्यूटर सम्बंधी लेख तथा लेखमालाएँ छापते रहते थे। उन्होंने मेरी जापान यात्रा का पूरा हाल भी धारावाहिक छापा था। उसी पत्र में पटना के एक सज्जन श्री जयन्त चक्रवर्ती अपने सेकूलर विचार प्रकट करते रहते थे। वे कहीं लेक्चरर या रीडर थे और अपने चेले-चपाटियों से भी वैसे ही सेकूलर पत्र ‘ज्ञान रंजन’ में भिजवाते थे।
एक बार उन्होंने राम मंदिर आन्दोलन और श्री लालकृष्ण आडवाणी (जिनको वे ‘घासवाणी’ लिखते थे) की आलोचना में एक लम्बा लेख ज्ञान रंजन ट्रेजर में छपवाया। अभी तक तो मैं उनकी बकवास को टालता रहा था, लेकिन यह लेख पढ़कर चुप नहीं रह सका और उस लेख का बिन्दुवार जवाब ‘हम भी मुँह में जुबान रखते हैं’ शीर्षक से लिखकर भेज दिया और ज्ञान रंजन ने उसे छाप भी दिया। इसके छपते ही जयन्त जी सकते में आ गये होंगे। उन्हें आशा नहीं रही होगी कि कोई उनकी बकवास का ऐसा करारा जवाब भी दे सकता है। फिर उनका एक पत्र लीपापोती की भाषा में छपा और उनकी एक चेली अर्चना कुमारी का पत्र भी छपा कि ‘विजय कुमार सिंघल के जवाब का एक-एक शब्द अक्खड़पन से भरा हुआ है, जो उनके उग्रवादी विचारों की पुष्टि करता है।’ इसके बाद जयन्त जी ने ज्ञान रंजन में लिखना कम कर दिया। बाद में ज्ञान रंजन छपना बन्द हो गया था।
(जारी…)
विजय भाई , आज की किश्त बहुत अच्छी लगी और आप के पौलिटिकल जीवन की झलक देखने को मिली और ख़ास कर अखबार की कटिंग . पौलेटिक्स में मेरा इतना गियान तो नहीं है लेकिन एक बात से मेरी सहमती है कि हिन्दुओं का गौरव वापिस प्राप्त होना चाहिए .अयोधिया हिन्दुओं की भावनाओं से जुड़ा है . राम मंदिर इतना बड़ा बनना चाहिए कि सारी दुनीआं से हिन्दू किया सभी लोग दर्शनों के लिए आयें और मुसलमानों को भी चाहिए कि भाई चारा दिखाएं और विरोध करना छोड़ दें . अगर वोह खुद कहें कि मंदिर बनना चाहिए , इस से मुसलमानों की भी इज़त बढेगी और देश में सम्पर्दाएक झगडे कम हो जायेंगे.
धन्यवाद भाई साहब. अयोध्या में मंदिर का जो मॉडल बनाया गया है उसके अनुसार मंदिर बहुत बड़ा होगा और वह पूरे रामजन्म भूमि परिसर में फैला होगा. वह एक हिन्दू सांस्कृतिक केंद्र के रूप में कार्य करेगा.
भाई साहब, इसी बात का तो दुःख है कि भारत के मुसलमानों में दूरदर्शिता नहीं है, बल्कि हठधर्मी है. अगर वे अपनी इच्छा से यह जमीन हिन्दुओं को दे देते तो देश में प्यार और सद्भाव का नया अध्याय प्रारंभ होता. हिन्दू समाज हजार तरीकों से मुसलमानों का यह अहसान चुकाता, परन्तु अफ़सोस मुसल्मानों ने यह अच्छा मौका गँवा दिया.
आज की क़िस्त को आरम्भ से अंत तक पढ़ा। आपमें देश भक्ति कूट कूट कर भरी है। आपके देश भक्ति से परिपूर्ण व्यक्तित्व / स्वरुप के दर्शन हुवे। आपके समाचार पत्रो में छपे पत्रो से भी आपका देश व स्वसंस्कृति प्रेम झलकता है। आपने सरदार खुशवंत सिंह जी द्वारा उद्धृत किसी शायर की पंक्तियों के उत्तर में जो पंक्तियाँ लिखी उससे आपमें विद्या की देवी माँ सरस्वती का निवास प्रतीत होता है। यह पक्तियां शाश्वत विचार हैं। आज की क़िस्त आपके देश प्रेम सहित धर्म व संस्कृति के प्रति गहरे अनुराग को प्रकट करता है। हार्दिक धन्यवाद।
प्रणाम मान्यवर ! आपके उद्गारों के लिए विनम्र आभार ! _/_