चाहा था मैंने पलकों पर
चाहा था मैने पलकों में
सपनों का महल बनाना
तुम जो ठहरे छलिया ,
छल कर किया नया बहाना
पहना कर पायल की बेड़ी
कंगन की हथकड़ियाँ
सिंदूरी सस्कृति से लिखकर
उम्र कैद मुझे कर लिया
मैं भी मूर्खा जो ठहरी
स्वीकृति कर नियति को
मुस्कुरा कर चल पड़ी और
बदल दिया निज लक्ष्य को
नाक नथनी जंजीर रीति की
चूनर ओढ़ ली संस्कृति की
बांध करधनी पारंपरिक चाबियां
सम्हाला घर अपने पिय का
अब तो न्याय करो न्यायाधीश
मैने निभाये सातों वचन
गढ़ दिया काव्य नवल
अब तुम करो आत्ममंथन
© copyright @ Kiran singh
बहुत सुन्दर कविता ! इसमें यथार्थ का चित्रण किया गया है !
हार्दिक आभार