आशीर्वाद
आज मैं अपने स्वप्न महल के के बालकनी में बैठकर आसमाँ में ढूंढ रही हूँ अपने अपनों को कि उनसे मिलकर उन्हें प्रणाम करूँ… बहुत बहुत धन्यवाद कहूं…रात तारों के मध्य में शायद मिल जाएं मेरे सभी अपने जो जा चुके हैं आशीष देकर इस दुनिया से.. ढूंढ रही हूँ अपने पति की माँ.. मेरी सासू माँ..को कि फिर माँग लूं उनसे ढेरों आशिर्वाद अपनी पीढ़ी दर पीढ़ी के लिए..! अब मेरे मन में कहीं किसी भी जगह कोई गिला नहीं है उनके लिए..! बल्कि यह महसूस कर रही हूं कि यह सब उन्हीं के आशीष का तो प्रतिफल है.. मेरे द्वारा किये गये त्याग का प्रतिफल सूद समेत वापस मिल रहे हैं ..!
बुरा तो लगता ही था कि कभी खुद तो कुछ देती नहीं थी और जब मैं अपनी माँ की भी दी हुई सुन्दर सी साड़ी पहनना चाहती थी तो कहती थी अपना पहिने से का मिलेके बा राजा पान खइला से ना चिन्हाला उहे ननदीन के दे देबू त नाव हो जाई..! ( अपने पहनने से क्या मिलेगा राजा पान खाने से नहीं पहचाना जाता है..! वही ननद को दे दोगी तो नाम हो जाएगा ..) और फिर कभी पतिदेव बड़े ही प्रेम से मेरे लिए कुछ लाते थे और मैं खुश होकर उन्हें दिखाने जाती थी तब उनके चेहरे का गोरा रंग कैसे स्याह हो जाता था स्पष्ट दिखाई देता था..और फिर बड़े ही प्रेम से कह देती जाएद ध द ननद के बियाह मेें दे दीह ताहरा के भगवान दीहें.. ( जाने दो रख दो ननद के लिए तुम्हें भगवान देंगे ) तब मेरा मन तो उनके प्रति दुर्भावनाओं से भर जाता था सोंचती थी कितना फर्कप होता है माँ और सास मे लेकिन मैं अपने चेहरे पर उभरे उनके प्रति अपनी मनोभावनाओं को छुपा लेती थी.! . मेरी भाव भंगिमाओं को वे कहीं पढ़ न लें इसलिए अभिनय में निपुण होठों की सहायता से मुस्करा देती थी..! अच्छी बहु का तगमा जो मिल गया था अब उन्हें सम्हालना भी तो था..!
कभी कभी तो मन उब जाता था सिर्फ तारीफ सुनते सुनते जी चाहता था भले कोई बुराई ही करता तो कम से कम लड़ तो लेती.. अपने अन्दर की घुटन को कह तो देती कि जी घबराता है अब सभी को खुश करते करते..रोज टूट रही हूँ त्याग करते करते.. सिर्फ त्याग ही तो माँगते थे सभी रिश्ते.. मन होता था उन उलझनों से बाहर निकल आऊँ.. तोड़ दूं सभी स्वार्थ के रिश्तों को…जो मेरी खुशियों का त्याग मांगते हैं कि तभी सासू माँ का बड़े ही स्नेहिल शब्दों में स्वर सुनाई देता था शायद उनकी अनुभवी आँखें मेरी मनोभावनाओं को पढ़ लेती थी.. जाएद तोहरा के भगवान् दीहें. ( जाने दो तुम्हें भगवान् देंगे.) फिर मैं मान लेती उनका बात बेमन से ही..! और करने लगती अपने बड़ी बहू होने की फर्ज अदा..! ढूंढ लेती थी पूरे परिवार की खुशियों में अपनी छोटी सी खुशी. और बदले में ले लेती थी ससुराल में मान-सम्मानला के साथ ही साथ ढ़ेर सारा लाड़ दुलार..जो मेरे छोटे छोटे त्याग की तुलना में कहीं अधिक वजनदार थे..!
आज महसूस कर रही हूं कि बड़ो का आशीर्वाद ईश्वर द्वारा दिया गया ही वागदान होता है जो निःसंदेह फलीभूत होता है.. कुछ देर से ही सही..पर अवश्य..! और वह सब कुछ भी देता है जिनकी कल्पना करने में भी मन संकोच करता है..!
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भावुकता भारी अच्छी कहानी !