मुक्तक/दोहा

दो मुक्तक

1
दूसरों की कही सारी नकारात्मक बातें सुना नहीं करते
कुछ की आदत अपनी हार का बदला, आलोचना हुआ करते
ऊपर वाले ने ऐसे समय के लिए ही तो दो कान दिये हैं
जिसके रास्ते दिल-दिमाग तक जाने नहीं दिया करते
2
किसी वृक्ष को जान लिये होते करीब से
लोग इश्क से रश्क करते उनके जमीर से
रह गए वे डुबकी लगाए अहंकार में
तितिक्षा ही तो फिसल गई समीप से

(तितिक्षा = सर्दी-गर्मी सहने का सामर्थ्य)

—  विभा रानी श्रीवास्तव 

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ

One thought on “दो मुक्तक

  • विजय कुमार सिंघल

    मुक्तकों के भाव अच्छे हैं, लेकिन शिल्प थोडा कमजोर है.

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