भ्रम
बहुत दिनों तक
महीनों तक
जब
मै नही लिख रहा था
कविता……!
समुद्र से कुछ दूर
रेत पर
मछली की तरह जी रहा था
तड़फ रहा था
मेरे सपनो को लोग
अपने जूतों से कुचल रहे थे
दिन …..!
सबह सुबह
मुझे हांकता हुआ
ले जाया कराता था
और
शाम -होते होते
एक खाई
या स्याही से खाली
हो चुके -रिफिल की तरह
छोड़ जाया करता था
माह….
फ़िर इसी तरह -बरस बीत गये
गुलाम बन चुके इस जिस्म
से फिर से
मैं निजात पाना चाह रहा था
मै पिजरे मे कैद
एक चिडिया की तरह
रेत पर तड़फती
एक मछली की तरह
फिर से उड़ना
और तैरना
चाह रहा था
लेकीन
मुझे
अपने -आकाश
और अपने समुद्र की
ख़बर ही नही थी
सचमुच मै ही
पंख और आकाश
मछली और समुद्र ..था
जब चाहे
उड़ सकता
तैर सकता था
पिंजरे की उपस्थिति
रेत का होना
भ्रमो की इस दुनियाँ मे
मेरा मात्र
एक भ्रम था
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत बढिया.
बहुत सुन्दर ! जीवन की वास्तविकता बताती है यह कविता !