आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 46)

सन् 1992 के अप्रैल माह में श्रीमतीजी की मम्मीजी ने अपनी सभी बेटियों और दामादों के साथ वैष्णो देवी की यात्रा का कार्यक्रम बनाया। वे अपने पैर की एक जानलेवा बीमारी से उबरी थीं। उसी समय उन्होंने इस यात्रा को करने की मन्नत मानी थी। इस यात्रा के लिए हम दो दिन पूर्व ही वाराणसी से आगरा आ गये। उस समय तक गुड़िया का विवाह नहीं हुआ था। हम सभी इस यात्रा में गये। यों मैं आर्यसमाजी विचारों का हूँ और मूर्तिपूजा में बिल्कुल विश्वास नहीं करता, लेकिन प्रकृति माता का पुजारी होने के कारण मैं हर्ष और उत्साह के साथ इस यात्रा में सम्मिलित हुआ। मूर्तिपूजा को छोड़कर मैंने इस यात्रा की सभी परम्परायें भी निभायीं। उन दिनों वहाँ काफी भीड़ थी। दूर-दूर से आये हुए श्रद्धालु जिस प्रकार कष्ट उठाकर उन मूर्तिपिंडों के दर्शन करने आते हैं, उनकी वह भावना प्रशंसनीय है। वहाँ की मूर्तियाँ और देवी चाहे काल्पनिक और झूठी ही क्यों न हों, लेकिन उनके भक्तों की आस्था और श्रद्धा भावना वास्तविक और सच्ची है। इसी श्रद्धा भावना को मैं प्रणाम करता हूँ-
या देवी सर्वभूतेषु श्रद्धा रूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः।।

इस यात्रा में मुझे बड़ा आनन्द आया। इसका पूरा विवरण नीचे दे रहा हूँ।

दि. 25 अप्रैल, 1992 (शनिवार)

हमारा जम्मू जाने का आरक्षण हिमसागर एक्सप्रैस में है। यह गाड़ी शाम को 7 बजे आगरा कैंट स्टेशन से छूटती है। हम समय से वहाँ पहुँच गये और आराम से गाड़ी में बैठ गये। हमारे दल में शामिल थे- श्री मोतीलाल जी गोयल (मेरे ससुर), उनकी पत्नी श्रीमती मुन्नी देवी (मेरी सासु माँ), उनके पुत्र श्री आलोक (अन्नू), उनके बड़े दामाद श्री हरिओमजी अग्रवाल (मथुरा वाले) और उनका परिवार (पत्नी श्रीमती सुमन तथा दोनों पुत्र मोनू और ईशू), मँझले दामाद श्री सुनील कुमार अग्रवाल तथा उनका परिवार (पत्नी श्रीमती रेणु तथा बच्चे डाॅल तथा अनित), मैं तथा मेरा परिवार (पत्नी श्रीमती वीनू और पुत्र दीपांक) एवं मेरी साली कु. राधा (गुड़िया)। इस प्रकार हम कुल मिलाकर 15 व्यक्ति थे, जिनमें 10 वयस्क और 5 बच्चे थे।

हमारी गाड़ी ठीक समय पर छूटी। रास्ते के लिए हम घर से ही भोजन रखकर लाये थे। रेलगाड़ी क्रमशः मथुरा, दिल्ली, पानीपत, अम्बाला, सरहिंद, लुधियाना, जालंधर और पठानकोट होते हुए जम्मू तवी की ओर चली।

दि. 26 अप्रैल, 1992 (रविवार)

रास्ते में एक मजेदार बात हुई. समय बिताने के लिए हम ताश खेल रहे थे. तभी एक पगड़ीधारी सैनिक से ताश के एक खेल में मेरी बाजी हो गयी, जिसे सीप कहते हैं. हम पूरे दो घंटे तक सीप खेले, जिसमें मैंने उसको बुरी तरह हराया. खेल के बाद वह हमारे साथियों से कहने लगा कि उसने सीप का ऐसा जबरदस्त खिलाडी अभी तक कोई नहीं देखा.

जब गाड़ी सरहिंद स्टेशन के पास से गुजर रही थी, तो मुझे इतिहास की एक बात याद आ गयी. मैंने उस सैनिक से पूछा कि सरहिंद का किला किधर है. उसने एक तरफ इशारा किया, तो मैंने उस दिशा में हाथ जोड़कर प्रणाम किया. उसने पूछा कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ, तो मैंने बताया कि सरहिंद के नबाब ने गुरु गोविन्द सिंह के दो अबोध पुत्रों को इसी किले की एक दीवार में जिन्दा चिनवा दिया था. उनके बलिदान को याद कर रहा हूँ. यह कहते हुए मेरी आँखें भर आयीं. यह देखकर वह सैनिक बहुत आश्चर्यचकित हुआ.

हम दोपहर लगभग 2.30 बजे जम्मू तवी स्टेशन पर पहुँचे। स्टेशन से बाहर निकलकर कटरा (या कटड़ा) के लिए बस मिली। कटड़ा से ही वैष्णोदेवी की पैदल यात्रा प्रारम्भ होती है। हम नगरौता तथा नन्दिनी होते हुए शाम 5 बजे कटरा पहुँचे। जम्मू से कटरा की दूरी 60 किलोमीटर है और समय 2 घंटे का लगता है। रास्ता पहाड़ी है तथा काफी सुहावना है।

कटरा में हम श्रीधर सभा की धर्मशाला में ठहरे। हमने उस दिन स्नान नहीं किया था, इसलिए स्नान के लिए भूमिका नाम स्थान पर गये। वहाँ एक छोटी सी धारा है। पानी बहुत ठंडा था। वैसे भी थोड़ी ठंड थी। इसलिए जल्दी से स्नान कर लिया और कपड़े बदल लिये। बच्चों ने स्नान नहीं किया।

वहाँ से लौटकर यात्रा के लिए पर्ची बनवाई। वैष्णो देवी के दर्शनों के लिए पर्ची बनवाना आवश्यक है, नहीं तो दर्शन नहीं करने दिये जाते। पहले हमारा विचार रात्रि में ही चढ़ाई शुरू करने का था। परन्तु थके होने के कारण इसका विचार स्थगित कर दिया और रात्रि विश्राम धर्मशाला में करके प्रातः चढ़ाई प्रारम्भ करने का निश्चय किया। रात्रि को एक होटल में भोजन किया और सो गये।

दि. 27 अप्रैल, 1992 (सोमवार)

प्रातः ठीक 6 बजे शौच आदि से निवृत्त होकर चले। स्नान नहीं किया। स्नान हेतु आवश्यक कपड़े अलग निकालकर शेष सामान धर्मशाला के अमानती सामान घर में रख दिया। वहीं बच्चों के लिए तीन पिटठू तय किये। एक पिट्ठू हमने अपने पुत्र दीपांक के लिए, एक बड़े साढ़ू साहब के दोनों बच्चों के लिए तथा एक छोटे साढ़ू साहब के दोनों बच्चों के लिए।

पिट्ठुओं के नाम थे- क्रमशः मुहम्मद बशीर (लाइसेंस सं. 589), मुहम्मद रफी (लाइसेंस सं. 4079) और रहमान (लाइसेंस सं. 651)। जैसा कि उनके नामों से स्पष्ट है ये पिट्ठू प्रायः कश्मीरी मुसलमान होते हैं और सभी को लाइसेंस लेना होता है। दीपांक को बशीर ने उठा रखा था। दीपांक का उसने बहुत ध्यान रखा। उसके कारण हमें दीपांक की बिल्कुल चिन्ता नहीं होती थी। दीपांक तो बशीर से इतना हिल गया था कि मेरे बजाय उसी की गोद में जाता था। आश्चर्य है कि वह पिट्ठू के कंधों पर चढ़ते समय एक बार भी बिल्कुल नहीं रोया, जबकि दूसरे बच्चे, जो उम्र में भी दीपांक से बड़े थे, पिट्ठू पर बैठते समय चीख-चीखकर आसमान सिर पर उठा लेते थे।

वहीं हमने अपने ससुरजी और सासु जी के लिए एक तरफ के टट्टू (खच्चर) तय किये। इन सबका रेट सरकार की तरफ से निर्धारित होता है।
यात्रा की शुरुआत में ही टी-सीरीज वाले गुलशन कुमार का लंगर था। वहाँ हमने चाय पी, फिर आगे चले। रास्ते में इंतजाम अच्छा था। चढ़ाई कुछ कठिन है, परन्तु बीच-बीच में ठहरते हुए यात्रा जारी रखी। रास्ते में जगह-जगह पीने के पानी और शौचालयों का भी प्रबंध है। रात्रि को पर्याप्त प्रकाश की भी व्यवस्था रहती है। नीचे कटरा से रात्रि के समय सारा रास्ता सर्पाकार दिखाई पड़ता है।

रास्ते में थोड़ी-थोड़ी दूर पर दुकानें भी हैं, जहाँ चाय, नाश्ता, बिस्कुट आदि आवश्यक वस्तुएँ मिल जाती हैं। दुकानें कुछ महँगी हैं, परन्तु अधिक नहीं। जितनी अधिक ऊँचाई पर चढ़ते जाते हैं, दुकानों के रेट उसी अनुपात में बढ़ते जाते हैं, जैसा कि स्वाभाविक भी है, क्योंकि वहाँ तक सामान पहुँचाने में काफी खर्च पड़ता है।

कुल रास्ता 12 किलोमीटर का है। इसमें से आधा अर्थात् 6 किमी का रास्ता कुछ सरल है अर्थात् साधारण चढ़ाई है, जिसका उन्नयन कोण लगभग 15 अंश है। आधे रास्ते के बाद मुख्य विश्राम स्थल है, जिसका सही नाम तो ‘आदिकुमारी’ है, परन्तु गलती से ‘अर्द्धकुँवारी’ कहा जाता है। यहाँ का मुख्य आकर्षण एक सँकरी सुरंग जैसी गुफा है, जिसमें एक तरफ से घुसते हैं और पंद्रह-बीस मीटर दूर दूसरी तरफ से निकलते हैं। इस गुफा का नाम ‘गर्भजून’ बताया जाता है। इसमें पेट के बल रेंगकर निकलना होता है। इसमें काफी कष्ट भी होता है, परन्तु लोग प्रसन्नता से यह कष्ट झेल जाते हैं। आश्चर्य की बात है कि मोटे से मोटा आदमी भी इसमें फँसता नहीं है, बल्कि पार निकल जाता है।

हमें जल्दी से जल्दी भवन पर पहुँचना था। इसलिए इस गुफा में घुसने का कार्यक्रम लौटते समय के लिए छोड़ दिया। यहाँ हमने छोले-भटूरे का नाश्ता किया और थोड़ा विश्राम करके फिर चल पड़े। पिट्ठू प्रायः हमारे साथ ही चलते हैं, परन्तु तेज चलने के कारण वे थोड़ा आगे हो जाते हैं और आगे कहीं बैठे हुए मिलते हैं।

आदिकुमारी के आगे का शेष आधा रास्ता थोड़ा कठिन है, जिसमें प्रारम्भिक 3 किमी कठिन चढ़ाई है। इसका उन्नयन कोण लगभग 25 या 30 डिग्री होगा। यह चढ़ाई पार करके एक ऊँचे समतल स्थान पर पहुँचते हैं, जिसका नाम ‘साँझी छत’ है। वहाँ एक फव्वारा लगा है। वहीं पहली बार हमारी सुरक्षा जाँच की गयी। वहाँ से आगे लगभग 2 किमी का समतल रास्ता है तथा अन्त में लगभग 1 किमी की उतराई है, जो वैष्णोदेवी के भवन तक पहुँचाती है। भवन तीन ओर से पहाड़ों से घिरी हुई एक घाटी जैसी जगह पर बना है। कटरा से केवल साँझी छत तक का रास्ता दिखाई देता है। भवन उस पहाड़ी के दूसरी ओर है। अगर कोशिश की जाती, तो वहाँ तक एक सरल रास्ता बनाया जा सकता था।

(पादटीप : अब वह सरल रास्ता बन गया है, जिसका अनुमान मैंने 1992 में ही लगा लिया था.)

हम प्रातः 6 बजे कटरा से चले थे और दोपहर 12 बजे तक भवन पर पहुँच गये। वहाँ ढेर सारी दुकानें हैं, धर्मशालाएँ हैं और सरकारी कार्यालय भी हैं। वहाँ किसी झरने के पानी को रोककर पाइपों से लाकर स्नान का स्थान बनाया गया है। प्रबंध अच्छा है। पहले हमने वहीं स्नान किया, फिर दर्शन को गये। दर्शनों की लाइन बहुत लम्बी है। धीरे-धीरे चलते हुए उस गुफा तक पहुँचे, जो अब संगमरमर की बना दी है। भीतर की कोठरीनुमा जगह में ‘देवी’ के दर्शन होते हैं। ये पत्थर के तीन पिंड हैं, जो क्रमशः महागौरी, महावैष्णो और महासरस्वती के बताये जाते हैं। बीच वाला पिंड सबसे बड़ा है। दर्शन के बाद गुफा के दूसरी ओर से निकाल दिये जाते हैं। वास्तव में गुफा एक ही है और रास्ता भी एक ही है, परन्तु बीच में रोक लगाकर दो सुरंगनुमा रास्ते बना दिये गये हैं, एक अन्दर जाने के लिए और एक बाहर निकलने के लिए।

दर्शनों के बाद प्रसाद बाँटने की परम्परा है। कम से कम 8 कुमारी लड़कियों को प्रसाद और दक्षिणा दी जाती है। हलवा-पूडी का प्रसाद तो सब एक जैसा ही बाँटते हैं, परन्तु दक्षिणा अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार 1 रु., 2 रु., 5 रु. 10 रु. और उससे भी अधिक बाँटी जाती है।

वहाँ से निकलकर हमने एक होटल में भोजन किया और सायंकाल लगभग 4 बजे लौट चले। पहले लगभग 1 किमी की कठिन चढ़ाई है, फिर 2 किमी समतल और फिर 3 किमी की उतराई है। उतराई में थकावट कम होती है। इसलिए प्रायः सीढ़ियों से भी उतर आते हैं। इससे काफी समय बच जाता है। उतरते हुए और विश्राम करते हुए हम सायं 7 बजे आदिकुमारी पर पहुँचे।

वहाँ हमने थोड़ा विश्राम किया और फिर गर्भजून (गुफा) की पंक्ति में खड़े हो गये। हमें लगभग डेढ़ घंटे उस पंक्ति में लगे रहना पड़ा, तब हमारी बारी आयी। मेरे साथ मेरा डेढ़ साल का पुत्र दीपांक भी था। मैं उसे आगे-आगे सरकाता गया और पीछे-पीछे मैं स्वयं सरकता गया। इस प्रकार आसानी से गुफा पार कर ली। दीपांक ने इसका पूरा आनन्द उठाया। यों तो मुझे भी इसमें मजा आया, परन्तु इसका कोई धार्मिक महत्व समझ में नहीं आया।

गुफा से लौटते-लौटते हमें रात के 9 बज गये थे। तब तक हमने भोजन भी नहीं किया था। इसलिए नीचे कटरा लौटने का विचार स्थगित करके आदिकुमारी में ही रात्रि विश्राम करना तय किया। पहले हमने सरस्वती भवन के एक हाॅल में सोने का स्थान देखा। फिर कम्बल ले आये। माता वैष्णोदेवी स्थापना बोर्ड ने कम्बल उधार देने का अच्छा प्रबंध कर रखा है। केवल एक सौ रुपये प्रति कम्बल सुरक्षा राशि (सिक्योरिटी) जमा करनी पड़ती है। किराया कुछ नहीं, परन्तु आप अपनी इच्छा से जो देना चाहें दे सकते हैं। वहीं एक ढाबे में हमने भोजन किया और फिर सो गये। रात्रि को नींद अच्छी आयी। सरदी अधिक नहीं लगी।

दि. 28 अप्रैल, 1992 (मंगलवार)

हम ठीक प्रातः 5 बजे उठकर शौच आदि से निवृत्त हुए। कम्बल लौटाये और नीचे चल दिये। इस बार सारी उतराई सीढ़ियों से की। वहाँ सीढ़ियों के साथ-साथ सैकड़ों दुकानें बनी हुई हैं। उनमें खरीदारी करते गये। लगभग प्रातः 8 बजे हम कटरा में उस स्थान पर पहुँच गये जहाँ से चढ़ाई प्रारम्भ होती है। वहाँ वाण गंगा नामक एक छोटी सी पहाड़ी नदी है, जिसके बारे में कहा जाता है कि देवी ने अपने सिंह की प्यास बुझाने के लिए वाण मारकर पानी निकाला था। पानी का स्रोत रहस्यमय है या शायद इसे जानबूझकर रहस्यमय बनाये रखा गया है। वैसे पानी काफी शुद्ध एवं ठंडा है।

हम वाण गंगा में दो-ढाई घंटे तक नहाये। दो आदमी भेजकर धर्मशाला से सबके कपड़े मँगवाये थे। नहाते-नहाते साढ़े 11 बज गये। इसलिए हमने चलना तय किया। वहीं पास में टी-सीरीज का लंगर है, जहाँ हमने पिछले दिन चाय पी थी। वहीं यात्रियों को स्वादिष्ट पवित्र भोजन उपलब्ध कराया जाता है। वहीं हमने भी छोले-भटूरे का भोजन किया और फिर टैम्पू में बैठकर धर्मशाला पर आ गये।

वहीं हमने अपना सामान ठीक किया। पिट्ठुओं का हिसाब भी किया। कटरा से हमें लगभग 2 बजे जम्मू के लिए बस मिली। वह काफी तेज चली और कहीं बीच में रुके बिना केवल डेढ़ घंटे में हम जम्मू पहुँच गये। सबसे पहले हमने टिकट ली, क्योंकि हमारा लौटने का आरक्षण नहीं था। सौभाग्य से हमें तुरन्त आरक्षण भी मिल गया। गाड़ी शाम को 8 बजे जाती थी। हमारे पास काफी समय था। इसलिए हमने रघुनाथ मंदिर देखा। वहाँ काफी मूर्तियाँ हैं। थोड़ी खरीदारी भी की तथा ठीक 7 बजे स्टेशन पहुँच गये।

गाड़ी में बैठने में हमें कोई कठिनाई नहीं हुई। अगले दिन 29 अप्रैल को सायं 7 बजे हम आगरा के राजामंडी स्टेशन पर सकुशल उतर गये। इस प्रकार हमारी यह पहली वैष्णो देवी यात्रा सम्पन्न हुई।

(जारी…)

 

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 46)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप की यात्रा बहुत अच्छी लगी और कुछ कुछ हम ने भी कर ली . जो सीप खेलने की बात लिखी , कभी हम भी बहुत खेला करते थे . इस में एक ही बात होती थी कि जितना भी हो सके पत्ते याद रखने होते थे कि कितने निकल गए , कितने अभी हैं और किस के पास हो सकते हैं . यह गेम ही ऐसी होती थी कि उठने का नाम ही कोई नहीं लेता था. हमारे यहाँ तो एक वेस्ट इंडियन था उस ने भी सीखी हुई थी और इतना अच्छा खेलता था कि हम हैरान हो जाते थे . सरहंद की बात लिखी , कितने अत्याचारी थे यह लोग . आप की यात्रा पड़ कर बहुत मज़ा आया किओंकि मुझे ऐसी जगह बहुत अच्छी लगती थी . मैं कोई धार्मिक तो नहीं हूँ लेकिन ऐसी जगहों का इतहास जान्ने की बहुत इच्छा होती थी .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, भाई साहब आपने. सीप में सारा खेल याददाश्त का है. और मेरी याददाश्त बहुत अच्छी है. इसलिए मैं प्रायः जीत जाता हूँ.
      मुझे भी घूमना फिरना बहुत पसंद है. पहाड़, समुद्र, झरने और झील सभी मुझे अच्छे लगते हैं. इसलिए किसी भी बहाने से उनके पास जाने का मौका मिलता है तो छोड़ता नहीं.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपकी वैष्णोदेवी माता की यात्रा का पूरा वृतांत पढ़ा। मैं वहां कभी गया नहीं। एक कारण मेरा आर्यसमाजी होना भी है। आपके वर्णन से कुछ कुछ वहां गए होने जैसा अनुभव हो रहा है। आज ही देहरादून के तपोवन आश्रम में एक प्रवचन सुना। विषय देवी देवताओं का था। वक्ता ने कहा कि देवता जड़ वा चेतन दो प्रकार के होते हैं। पृथ्वी, अग्नि, वायु, जल, आकाश, सूर्य वा चन्द्र आदि जड़ देवता हैं। माता, पिता, आचार्य, हमारे सभी वृद्धजन, वानप्रस्थी वा सन्यासी आदि चेतन देवता हैं। अग्नि सभी जड़ देवताओं का मुख है। यज्ञ के द्वारा सभी देवताओं की पूजा होती है। जड़ देवताओं वायु, जल वा पृथ्वी आदि को शुद्ध रखना ही उनकी पूजा करना है। माता पिता आदि की पूजा उनका सेवा व सत्कार करके तथा ईश्वर की की ध्यान व उपासना द्वारा होती है। वर्णन रोचक एवं प्रभावशाली है। बधाई एवं धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर ! मैं वैष्णो देवी दर्शन करने या पूजा करने नहीं गया था, बल्कि भ्रमण के उद्देश्य से गया था. पारिवारिक संबंधों को निभाना भी एक कारण था, क्योंकि मेरे अलावा सभी लोग मूर्तिपूजा करते हैं. वैसे देवी-देवताओं पर आपके विचार सत्य हैं.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद महोदय। निवेदन है कि मैंने आपके माता वैष्णो देवी जाने पर कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की। आपने तो पहले ही स्पष्टीकरण लेख में कर दिया था। मैं आपकी स्थिति को पहले ही समझ गया था। भ्रातिवश आपको स्पष्टीकरण देना पड़ा इसके लिए मुझे खेद है। पुनः धन्यवाद।

        • विजय कुमार सिंघल

          इसमें खेद व्यक्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है, मान्यवर!

Comments are closed.