अब मैं खुद को…
अब मैं खुद को भुलाकर आप हो गया हूँ
राहे इश्क़ में चलकर निष्पाप हो गया हूँ
तेरी तस्वीर से ज्यादा सुन्दर कुछ नहीं
कभी रूबरू मिला था वो मिलाप हो गया हूँ
याद आते है मुझे वस्ल के सारे वे हसीन पल
जुदाई में तेरे अश्कों सहित विलाप हो गया हूँ
तेरे भी दिल में होंगे मेरी खातिर कुछ अरमान
दूर आकर तुमसे मैं एकाकी आलाप हो गया हूँ
दीवारों के कान , खिड़कियों की जुबान होती है
अंधी गलियों गुमराह सड़को के खिलाफ हो गया हूँ
किशोर कुमार खोरेन्द्र
गज़क अच्छी है, पर कुछ तकनीकी कमियाँ हैं. सभी पंक्तियाँ समान लम्बाई की होनी चाहिए.
ग़ज़ल बहुत अच्छी है .