“धरती पुत्र”
हल नित कहें किसान से, हलधर मेरे मित्र
धरती को मै चिरता, अरु धरा बिखेरे इत्र ||
कलम कहें कविराय से, मुझे लगाओ हाथ
ज्ञानपिपासु शब्द तुम, रहों श्रृष्टि के साथ ||
हल और कलम समान हैं, दोनों रखते धार
श्रृजन हमारें अंग हैं, बस कृपा करें करतार ||
हम तुम दोनों दो पथिक, अलग-अलग अंजान
मिल जाएं गर संग-संग, नवांकुर हों धन-धान ||
मै अछूत अनपढ़ रहा, लिए अलग पहचान
तुम स्याही संग रचे-पचे, पढ़ें-लिखे विद्वान ||
कहाँ हमारा मेल-जोल, कैसे हों मित्र-मिताई
जाति-पाति का भेद-भाव, कैसे हों चित्र-सगाई ||
मै धूल-धूसरित गोबर हूँ, तुम हों आच्छादित अम्बर
मै उर्बर करता जीवन पथ, तुम रचते हों आडम्बर ||
मेरा वजूद निर्भर रहता, तुम लगते हों भाग्यविधाता
तुम अलंकार अभिव्यक्ति हों, हम जड़-जाहिल कल्पाता ||
दोनों का रूप चिरंतन हैं, दोनों से विकसित श्रृजनथाल
मिल जाएं गर साथ साथ, हों जाए रजकण भी निहाल ||
ना देर लगे सूखी नदियाँ, दूधों की सरिता बह जाए
फिर सोन चिरैया का दर्शन, भारती धरा पर हों जाए ||
आओं पहचानें हम हम कों, हम एक एक से एक गुनी
इतिहासी पन्नों में फिर से, अंकित हों जाए ऋषि-मुनी ||
हम कृषि पुत्र हम ऋषि पुत्र,हम वेदों के सहपाठी हैं
हम जगत गुरू हम शिवसागर, हम श्रृष्टिशिला परिपाटी हैं ||
महातम मिश्र
बहुत अच्छी लगी .
सादर धन्यवाद गुरमेल सिंह जी
बहुत खूब !!
बहुत बहुत धन्यवाद श्री विजय कुमार सिंघल जी
बहुत सुंदर कविता श्रीमान जी!!!
हार्दिक धन्यवाद मित्र रमेश कुमार सिंह जी