लघुकथा : महंगा स्वप्न
सेठ – निकल जाओ मेरी बेटी की जिंदगी से, तुम्हारी औकात के मेरे घर में नौकर चाकर हैं। झोपडी में रहकर महलो के ख्वाब देखने चले हो।
मैं – सर, हम आपकी बेटी से सच्चा प्रेम करते हैं और दुनिया की हर ख़ुशी उसके कदमो में रख देंगे ।
सेठ – खबरदार जो अपनी जुबान पे मेरी बेटी का नाम भी लिए। तुम्हे मालूम भी है और वो कौन है। खरबपति सेठ बेचन प्रसाद की इकलौती बेटी है! अपनी कीमत बोलो कितना लोगे मेरी बेटी की जिंदगी से निकलने का ???
मैंने कुछ सोचने की मुद्रा में होठ सिकोड़ दिए।
सेठ – ये लो ब्लेंक चेक और जितनी तुम्हारी औकात है भर लो।
मैंने झट से “एक करोड़”भरे और तेज कदमों से कोठी से बाहर निकल गया। सोच रहा था कहीं उस प्यार से सामना न हो जिसको हम बेच के आये हैं। मन में एक ही विचार कौंध रहा था क्यों लगाई कीमत अपने प्रेम की। फिर दूसरा मन पहले मन को सांत्वना दे रहा था वो तो एक अमीर सेठ की बेटी है ले जाएगा उसको कोई राजकुमार ब्याह के।
वहीं दूसरी तरफ एक भाव रह रह के आत्मविभोर कर रहा था । अब मैं अमीर हो गया, कोई मुझे गरीब नहीं बोलेगा। मुझे भी अमीरों में उठने बैठने प्रेम करने का उठने बैठने का बराबर हक़ होगा। फिर कोई अमीर सेठ मेरे घर खुद चल कर आयेगा। रिश्ता मांगने। ज्योति का क्या थोडा रोयेगी। सेठ ने उसे मेरे दिल से तो निकाल दिया पर उसके दिल में सदा मैं रहूगा। इंसान युद्ध में तो हार कबूल कर लेता है पर प्रेम में कभी परास्त नहीं होना चाहता है।
झपाक एक बाल्टी पानी के प्रहार से पूरा बिस्तर गीला हो गया। विकास क्रोध में आकर बड़बड़ाने लगा – ‘माँ आप भी ना !!’
मन ही मन उसे भीगने की नहीं, पर उस एक करोड़ के स्वप्न के टूटने की खीझ थी ।
— धर्म पाण्डेय
जिस का मन पहले से ही कपटी हो , उस को ऐसे सपने ही आएँगे.