आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 47)
उसी वर्ष अर्थात् सन् 1992 की गर्मियों में नदेसर (वाराणसी) में हमारी कालोनी से सटी हुई राजा नदेसर की कोठी के मैदान में एक सर्कस लगा। उस सर्कस में बहुत से हाथी, घोड़े, ऊँट, गधे, बकरी आदि जानवर आये थे, जो बाउंडरी के अन्दर खुले में बँधे रहते थे। दीपांक उस समय डेढ़-पौने दो वर्ष का था और दो-चार शब्द बोल लेता था। उसको मैं ये जानवर दिखाने रोज सर्कस के अन्दर ले जाता था। वह सभी जानवरों को पहचान लेता था और उनके नाम बता देता था। सर्कस के पहरेदार जानवर देखने के लिए केवल दीपांक को और उसके साथ मुझे अन्दर जाने देते थे। जब तक सर्कस वहाँ रहा, वह रोज शाम को उन जानवरों को देखने जाता रहा। वैसे हमने दो बार सर्कस भी देखा था- एक बार अपने परिवार के साथ और दूसरी बार मैदागिन वाले अपने रिश्तेदारों के साथ।
उस वर्ष इलाहाबाद बैंक में मेरी सेवा को 4 वर्ष पूरे होने वाले थे। हमें प्रत्येक 4 वर्ष में एक बार भारत में कहीं भी सपरिवार घूमने जाने की सुविधा मिलती है, जिसे एलटीसी (LTC) या एलएफसी (LFC) कहा जाता है। इसमें केवल आने-जाने का किराया बैंक से मिलता है, शेष सारा खर्च स्वयं वहन करना पड़ता है। यदि उस समयावधि में यह सुविधा न ली जाये, तो वह बेकार हो जाती है। मेरे मित्र श्री सुभाष मेहता उदयपुर में रहते हैं। उन्होंने बड़े आग्रहपूर्वक हमें राजस्थान आने का निमंत्रण दिया। वाराणसी के हमारे फ्लैट की मालकिन श्रीमती माया शर्मा उस समय जयपुर में रहती थीं। उन्होंने भी जयपुर आने के लिए कह रखा था। राजस्थान के इन दो प्रमुख शहरों में हमारे ठहरने की व्यवस्था होते ही हमने एलटीसी का लाभ उठाने के लिए राजस्थान यात्रा का कार्यक्रम बना लिया। उस समय तक दीपांक पूरे दो वर्ष का हो चुका था और काफी पैदल चल लेता था। इसलिए हमें उसकी अधिक चिन्ता नहीं थी। यह अक्तूबर-नवम्बर का महीना था।
पहले हम जयपुर गये। वहाँ एक दिन तो हम अपने आप ही घूमे। चिड़ियाघर देखा और कुछ खरीदारी भी की। परन्तु अगले दिन मकान मालकिन श्रीमती माया जी के सुझाव पर हम राजस्थान सरकार की टूरिस्ट बस से घूमे। राजस्थान सरकार ने यात्रियों को घूमने के लिए यह बहुत अच्छी सुविधा दे रखी है, जिसमें उचित खर्च में सभी प्रमुख स्थान देखे जा सकते हैं। हम उस दिन आराम से जयपुर के सभी स्थान देख आये। हमें जयपुर बहुत अच्छा लगा। वहाँ काफी फोटो भी खींचे। राजस्थान में कई जगह फोटो खींचने पर अतिरिक्त शुल्क लगता है। ऐसी जगहों पर या तो हमने फोटो खींचे ही नहीं या चुपके से खींच लिये। राजस्थान के लोग हमें काफी सज्जन और सहयोगात्मक लगे।
हम जयपुर में सी-स्कीम में ठहरे थे। वहीं पास में ही ‘राजमन्दिर’ नामक प्रसिद्ध सिनेमा हाॅल है। हालांकि हम थके हुए थे, फिर भी मायाजी के सुझाव पर हमने राजमन्दिर में रात के शो में एक पिक्चर भी देखी। उन दिनों उसमें अनिल कपूर और माधुरी दीक्षित की सुपरहिट फिल्म ‘बेटा’ चल रही थी। तब तक हमने यह फिल्म देखी नहीं थी। इससे एक पंथ दो काज हो गये। राजमन्दिर टाकीज हमें बहुत अच्छी लगी।
जयपुर से अगले दिन हम बस से अजमेर गये। वहाँ हम सलीम चिश्ती की प्रसिद्ध कब्र (या दरगाह) में भी गये। पास में ही ढाई दिन का झोंपड़ा नामक मस्जिद देखी, जो हुमायूँ ने मन्दिर तोड़कर बनवायी थी। मंदिर के चिह्न और अवशेष आज भी वहाँ साफ दिखायी पड़ते हैं। वहीं एक झील के पास बना हुआ प्राचीन जैन मंदिर भी हमने देखा। वहाँ से हम पुष्कर झील गये। हम वहाँ दोपहर बाद पहुँचे थे, अतः नहाने का प्रश्न ही नहीं था। इसलिए हमने यों ही हाथ-पैर धोकर कपड़े बदल लिये। पुष्कर हमें अच्छा लगा। वहाँ काफी विदेशी थे, जो नशेड़ी लग रहे थे। वहीं हमने ब्रह्मा जी का विश्व प्रसिद्ध मंदिर देखा। पुष्कर से लौटते-लौटते अँधेरा हो गया था। इसलिए हम वहीं कहीं थोड़ा-बहुत खाना खाकर अजमेर स्टेशन गये। वहाँ से हमें उदयपुर जाना था। उदयपुर के लिए एक पैसेंजर गाड़ी में हमने अजमेर आते ही आरक्षण करा लिया था, जो आसानी से मिल गया। अतः हम सुबह होने तक आराम से उदयपुर पहुँच गये। जयपुर में हमने रजाइयाँ खरीदी थीं। उनका बंडल ले जाने में हमें काफी मुश्किल होती थी, परन्तु किसी तरह सँभाल रहे थे।
उदयपुर में मेहता जी का निवास थोड़ी पूछताछ के बाद मिल गया। उस समय मेहता जी घर पर नहीं थे, बल्कि अस्पताल गये हुए थे, क्योंकि उनकी श्रीमती जी का पथरी का आॅपरेशन हुआ था। हमें यह जानकर धक्का लगा। हमने सोचा कि हमारे कारण उनका कष्ट बढ़ जायेगा, इसलिए हमने किसी धर्मशाला या होटल में ठहरने का भी विचार किया। परन्तु मेहता जी के आग्रह के कारण हम वहीं रुक गये। वहाँ जगह पर्याप्त थी और वैसे भी हमें केवल सोने भर का स्थान चाहिए था। उस दिन हम वहीं आस-पास घूमे, उनकी श्रीमती जी को देखने गये और अगले दिनों के लिए सरकारी टूरिस्ट बसों में स्थान आरक्षित करा लिया। शाम को हम चिड़ियाघर देखने चले गये, जो पास में ही था। वहीं सनसेट पाॅइंट भी देखा, जो मोती मगरी झील के निकट है।
अगले दिन हम उदयपुर शहर के विभिन्न स्थानों को देखने गये। हमें उदयपुर बहुत अच्छा लगा, जयपुर से भी अच्छा। वहाँ के महल, मन्दिर, झीलें और सहेलियों की बाड़ी नामक स्थान सभी बहुत सुन्दर हैं। उस दिन मौसम भी सुहावना था। जब हम घूम-फिरकर लौटे, तो मेहता जी ने सबके लिए दाल-बाटी तैयार कर रखी थीं। हमने वैसी दाल-बाटी पहली बार खायीं। बहुत स्वादिष्ट लगीं।
अगले दिन के लिए हमने दो टूर बुक कराये थे- एक हल्दीघाटी के लिए और दूसरा नाथद्वारा के लिए। राजस्थान सरकार की बस व्यवस्था बहुत अच्छी है। हम आराम से सभी जगह घूम आये।
इस यात्रा में दीपांक को काफी पैदल चलना पड़ा था। कारण कि बसें थोड़ी दूर पर उतारती थीं और भीतर भी घूम-घूमकर देखना पड़ता था। परन्तु सौभाग्य से दीपांक आराम से चल लेता था। कई बार तो वह एक-एक किलोमीटर तक लगातार चला। आमेर के किले की चढ़ाई भी उसने कर डाली। कभी-कभी हम उसे गोद में उठा लेते थे, लेकिन जल्दी ही वह स्वयं उतरकर पैदल चलने लगता था। केवल एक बार नाथद्वारे के पास वह ठोकर खाकर गिरा और उसके होंठ तथा घुटनों से खून निकल आया। हमने वहीं मेडीकल स्टोर से पट्टी लेकर बाँध दी।
उदयपुर से हमारा विचार माउंट आबू जाने का था। माउंट आबू के लिए सीधी बसें भी जाती हैं, परन्तु मेहता जी के ससुर जी ने, जो वहीं रहते थे, हमसे कहा कि रास्ते में रणकपुर नामक स्थान है, जहाँ अच्छे जैन मंदिर हैं। उनको देखते हुए जाइए। हमने उनकी आज्ञा शिरोधार्य की और बस से रणकपुर पहुँचे। वह एक कम प्रसिद्ध स्थान है, परन्तु बहुत अच्छा और शान्तिपूर्ण है। वहाँ जैन धर्म के सभी 24 तीर्थंकरों के मंदिर हैं। उनमें से कई मंदिरों के चारों ओर दीवारों पर वैसी ही प्रणय मूर्तियाँ बनी हुई हैं, जैसी खजुराहो के मंदिरों पर और कोणार्क के सूर्य मंदिर पर बनी हैं। वहाँ से चलते-चलते हमें देर हो गयी, क्योंकि काफी थक गये थे।
वहाँ से हमें माउंट आबू जाना था। पूछने पर पता चला कि थोड़ी दूर पर फालना नामक स्टेशन है, जहाँ से माउंट आबू के लिए ट्रेन मिलेगी। हमें फालना पहुँचने में थोड़ी देर हो गयी। तब तक आबू रोड जाने वाली गाड़ी निकल चुकी थी। अगली गाड़ी कई घंटे बाद थी और एक प्रातः काल भी थी। अतः हमने रात को माउंट आबू के बजाय फालना में ही रुकना तय किया और सुबह की गाड़ी से माउंट आबू जाने का निश्चय किया। वहाँ स्टेशन के पास ही एक धर्मशाला है। उसमें हमें मात्र 25 रुपये में एक कमरा मिल गया। उसमें एक डबलबैड और बिस्तर भी था। धर्मशाला के कमरे में अपना सामान रखकर, फ्रेश होकर और अपना ताला लगाकर हम बाहर घूमने निकले। फालना एक छोटा सा कस्बा है, जो शायद गुजरात की सीमा पर है। वहीं हमें एक गुजराती होटल मिल गया। हमने वहाँ खाना खाया और फिर टहलते हुए वापस आ गये।
(जारी…)
जयपुर और उदयपुर का यात्रा वृतांत रोचक है। मैं कभी जयपुर तो नहीं गया परन्तु सन १९८५ में सपरिवार उदयपुर गया था। एक बार पुनः आर्य समाज के एक आयोजन में गया था। उदयपुर बहुत अच्छा शहर है। महर्षि दयानंद ने सन १८८२ में यही महल के परिसर में, शायद गुलाब सागर में, सत्यार्थ प्रकाश का संशोधित संस्करण तैयार किया था। यहाँ के राजा महाराणा सज्जन सिंह उनके श्रद्धावान शिष्य थे। मुझे याद है कि प्रथम वार हम एलटीसी पर गए थे। देहरादून से दिल्ली, दिल्ली से चेतक एक्सप्रेस से उदयपुर पहुंचे थे। उदयपुर में पूरे दिन भर के लिए एक तांगा किराये पर ले लिए था जिसने वहां के सभी प्रमुख स्थान दिखाए थे। उदयपुर से हम पैसेंजर ट्रैन से जोधपुर आ गए थे जहाँ उन दिनों हमारी बड़ी बहिन का परिवार रहता था। उन दिनों दिल्ली से उदयपुर तथा उदयपुर से जोधपुर एवं जोधपुर से दिल्ली छोटी लाइन हुआ करती थी। आपको यह भी सूचित करने की इच्छा हो रही है कि आजकल देहरादून के वैदिक साधन आश्रम तपोवन में समारोह चल रहा हैं। यहाँ मुख्य वक्ता के रूप में आगरा से आचार्य श्री उमेश चंद कुलश्रेष्ठ आये हुए हैं. बहुत प्रभावशाली वक्ता हैं। मैंने कल वा परसों उनका प्रवचन युवासुघोष पर अपलोड किया है। सूचनार्थ।
धन्यवाद, मान्यवर ! मैंने आपके द्वारा प्रेषित समाचार पढ़े हैं. बहुत प्रेरक कार्यक्रम हुआ. काश मैं भाग ले सकता. आपके दर्शनों की भी इच्छा है. देखते हैं कब पूरी होती है.
विजय भाई , आप का सफ़र बहुत अच्छा लगा . मुझे भी पुरानी याद आ गई , १९६१ में कालिज की ओर से २५ दिन के टूर पर गए थे . हम ने भी जय पुर का हवा महल देखा था और जंतर मंतर भी , पुष्कर भी गए थे जैन मंदिर देखने , इस के इलावा उदय पुर भी गए थे और सहेलिओं का वोह जिग जैग जो दीवारें वाली भूल भुलाइआन भी देखि थी . मुझे याद है एक कश्ती में बैठ कर हम एक महल देखने गए थे ( सुना है अब इस में पानी नहीं है ), कहते थे मुग्लेआजिम का सीन उसी महल का था , पता नहीं सच है या झूठ , और ढाई तीन का वोह मकबरा भी देखा . अजमेर शरीफ भी हम गए थे . सभी यादें ताज़ा हो गईं .
धन्यवाद, भाई साहब. आपने किश्ती में बैठकर जिस महल को देखने जाने की बात लिखी है, वह शायद आमेर के किले के बगल में बना एक महल है. अब उसको केवल दूर से देखा जा सकता है यानी किले पर से. उस महल तक नहीं जाने दिया जाता. शायद केवल शूटिंग के लिए ही वह खुलता है.
राजस्थान वास्तव में बहुत खूबसूरत है.