लघुकथा : शहर का डॉक्टर
राजवीर की प्रमोशन हुई तो उसे मैनेजमेंट ट्रेनिंग के लिए कंपनी की ओर से शहर भेज दिया गया l वो पेशे से एक इलेक्ट्रिकल इंजीनियर था l पहाड़ी प्रदेश में ही पले – बढे राजवीर को शहर का गर्म और प्रदूषित बातावरण रास नहीं आया और उसे सांस से सम्बंधित कुछ समस्या हो गई l ट्रेनिंग इंस्टिट्यूट से एक दिन की छुट्टी लेकर वो एक डॉक्टर की क्लिनिक पर चेक – अप करवाने गया l उसके दो सहकर्मी साथी भी उसके साथ थे l
अभी वो क्लिनिक में प्रविष्ट हुए ही थे की इतने में एक देहाती सी दिखने वाली घरेलु महिला अपने खून से लथपथ बच्चे को उठाकर अन्दर आई l वो एकदम डरी और सहमी हुई सी थी l उसका करीब 2 साल का बच्चा अचेत अवस्था में था l राजवीर ,उसके दोस्त और क्लिनिक का स्टाफ सभी उस औरत और बच्चे की तरफ देखने लगे l उस महिला के साथ एक व्यक्ति भी आया था जिसने बताया की ये महिला सड़क के किनारे अपने बच्चे को उठाये रोती हुई उसे मिली थी l सड़क क्रॉस करने की कोशिश में किसी मोटरसाइकिल वाले ने टक्कर मार दी और वो भाग खड़ा हुआ l महिला बच्चे समेत नीचे गिर गई थी और बच्चे के सिर पर गंभीर चोट आ गई थी l
डॉक्टर ने बच्चे को हिलाया – डुलाया और उसके दिल की धड़कन चैक की l एक क्षण के लिए तो लग रहा था की जैसे उसमें जान ही नहीं है l महिला का रुदन जैसे राजवीर के हृदय को चीरता सा जा रहा था l डॉक्टर ने बच्चे का घाव देखा और उसे साफ़ किया l इतने में बच्चा होश में आकर रोने लगा तो महिला की जान में जान आई l डॉक्टर ने उसके सिर पर तीन टांके लगाये l
बच्चे की मरहम पट्टी करने के बाद डॉक्टर ने बिल उस महिला के हाथ में थमा दिया l जिसे देखकर वो देहाती महिला अव्वाक रह गई l महिला के साथ आया हुआ व्यक्ति कुछ पैसे देने लग गया l राजवीर और उसके दोस्त पहले ही डॉक्टर का बिल चुकाने का मन बना चुके थे l सबने मिलकर बिल चुका दिया l मगर उस शहर के डॉक्टर में इतनी भी करुणा नहीं थी की वो कम से कम अपनी फीस ही छोड़ देता,मरहम – पट्टी और दवा की बात तो और थी l राजवीर सोच रहा था, क्या इसी को शहर कहते है ? उसके भीतर विचारों का एक असीम सागर हिलोरे ले रहा था l विचारों की इसी उहा – पोह में कब उसकी टर्न आ गई , उसे पता ही नहीं चला l डॉक्टर से बैठने का संकेत पाकर वो रोगी कुर्सी पर बैठ गया l डॉक्टर ने चैक – अप शुरू कर दिया था l
— मनोज चौहान
लघु कथा में एक सच्चाई है जो यह बिआं करती है कि डाक्टर एक मशीन की तरह हैं , उन में दिल नाम की कोई चीज़ नहीं है . डाक्टरों की बड़ी बड़ी कोठिया और बड़ी बड़ी कारें देख कर ऐसा लगता है जैसे इन में खून ही खून हो .
धन्यबाद…… गुरमेल सिंह जी ….!
अच्छी लघुकथा. शहर के डाक्टर इसी तरह मरीजों को लूटते हैं और अपने इस निर्मम व्यापार को सेवा कहते हैं.
धन्यवाद सर ….!