माँ तेरा दर्शन
खुली आँख से जग को देखा, जब बंद हुई तो आई माँ |
सूरज की पहली किरणों में, देखी तेरी परछाई माँ ||
रिश्ते-नाते सब बदल रहे, अब घर भी बदला लगता है |
हर मूरत बदली बिन तेरे, मंदिर भी बदला लगता है ||
बाबु जो नाम दिया तुमने, तेरे बिन कोई नहीं बुलाता है |
सह पाना इसको दुष्कर है, यही सबसे अधिक रुलाता है ||
हर जगह गूंजती रहती माँ, सच की ममता तेरी बोली में |
जो प्यार मिला तेरे गुस्से में, अब मिलता नहीं ठिठोली में ||
तेरे रहते ही घर छूटा माँ, तूँ छूट गयी तो आया हूँ |
जीने का कड़वा सच है माँ, रोकर मै तुझे रुलाया हूँ ||
तेरी अर्थी को छूं न सका, कंधे की किस मुंह बात करूँ |
पहला फल तेरी बगियाँ का, कैसे इस पर विश्वास करूँ ||
मन को समझाऊ कैसे माँ, किस तरह तुझें साकार करूँ |
हर दिल में बिरह बेदना है, किस तरह सभी को प्यार करूँ ||
माँ तेरे जैसा कोई भी अब, क्यूँ दिखता नहीं इस दुनिया में |
हर सूरत में ढूढा तुझको, तेरी झलक ना मिली चंदनियाँ में ||
आँचल, माँ तेरे ख़ुश्बू का, हर वक्त महकता रहता है |
तेरी यांदों के सहारे माँ, तेरा परिवार चमकता रहता है ।।
— महातम मिश्र, अहमदाबाद
बहुत अच्छी कविता !
सादर धन्यवाद श्री विजय कुमार सिंघल जी, आप ने कविता को सराहा, धन्य हुयी मेरी लेखनी, आभार मान्यवर……