आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 48)

रातभर आनन्द से सोने के बाद हम सुबह जल्दी उठकर गाड़ी पकड़ने भागे। ठीक समय पर गाड़ी आ गयी और हम प्रातः 10 या साढ़े 10 बजे आबू रोड स्टेशन पर उतर गये। वहाँ से माउंट आबू तक बस में जाना होता है। हमें आरामदायक बस मिल गयी, जिसमें बैठकर हम माउंट आबू पहुँच गये। राजस्थान के अधिकांश पर्वत जहाँ मात्र पत्थरों के ढेर हैं और पेड़-पौधों से नंगे हैं, वहीं माउंट आबू के पर्वत बहुत हरे-भरे हैं। वहाँ की जलवायु भी बहुत शुद्ध है, जो हमें अच्छी लगी।

वहाँ बस अड्डे पर पूछताछ करने पर पता चला कि माउंट आबू घुमाने के लिए वहीं से ठीक 1 बजे बस चलती है, जो सायं 7 बजे तक सब जगह घुमाकर लौट आती है। हमने उसी बस से घूमना तय किया, क्योंकि समय कम होने के कारण हम उसका अच्छे से अच्छा उपयोग कर लेना चाहते थे। इसलिए जल्दी से हमने वहीं एक गुजराती होटल में खाना खाया। फिर घूमने के लिए बस की टिकट लेकर बैठ गये। उस बस का गाइड बहुत अच्छा था। हँसी-मजाक के साथ उसने सभी स्थान दिखाये। दिलवाड़ा मंदिर, अचलेश्वर महादेव, ध्रुव टीला, शान्ति निकेतन, सनसेट पाॅइंट तथा गुरु शिखर- इन स्थानों के नाम मुझे याद हैं। माउंट आबू काफी सुन्दर स्थान है। ज्यादा ठंड भी नहीं थी। मौसम वहाँ वर्षभर प्रायः सुहावना बना रहता है।

जब हम घूमकर लौटे तो ज्यादा थके हुए नहीं थे। माउंट आबू में नक्की झील में नौका विहार करने का हमारा विचार था, परन्तु रात्रि में वैसा करना सम्भव नहीं था और केवल उसके लिए एक दिन और रुकने का विचार हमने रद्द कर दिया। इसलिए रात को माउंट आबू में रुकने का विचार छोड़कर हमने रात की सीधी बस से उदयपुर लौटना तय किया। वह बस काफी चक्कर लगाकर आती है और सुबह उदयपुर पहुँचा देती है। हम किसी तरह उस बस में बैठे हुए आये। नींद परेशान कर रही थी और थोड़ी ठंड भी थी। परन्तु सबको सहन करते हुए हम ठीक तरह उदयपुर पहुँच गये।

वहाँ मेहता जी ने इस बात पर आश्चर्य व्यक्त किया कि हम रातभर बस में चलकर आये हैं। उन्होंने कहा कि हमें रात को वहीं रुक लेना चाहिए था और सुबह की दूसरी बस से आना चाहिए था, जो केवल तीन घंटे में उदयपुर पहुँचा देती है। परन्तु हमें यह पता नहीं था।

उदयपुर वापस पहुँचने तक हमारा मन घूमते-घूमते भर गया। घर से निकले हुए हमें 10 दिन हो चुके थे। दीपांक का चेहरा भी कुम्हलाने लगा था। इसलिए हमने तय किया कि इस यात्रा को यहीं विराम देकर वापस आगरा चलें। आगरे का मार्ग कोटा होकर ट्रेन से था। कोटा के रास्ते में चित्तौड़ पड़ता है। इसलिए मैंने कहा कि रास्ते में चित्तौड़ का किला देखते चलेंगे। श्रीमतीजी मान गयीं और हम शीघ्रता से तैयार होकर उदयपुर स्टेशन भागे। सौभाग्य से वहाँ चित्तौड़ जाने वाली गाड़ी तैयार खड़ी मिल गयी और हम उसमें बैठकर चित्तौड़ पहुँच गये।

चित्तौड़ स्टेशन से किला लगभग एक या डेढ़ किमी दूर है। वह स्टेशन से दिखायी भी दे रहा था। मैंने चलने के लिए कहा, तो श्रीमती जी ने मना कर दिया, क्योंकि किले में काफी पैदल चलना पड़ता और वे थक गयी थीं। इसलिए चित्तौड़ का किला देखने के लिए हमने जो समय तय किया था, वह स्टेशन पर बैठे-बैठे काट दिया। फिर दूसरी गाड़ी से कोटा पहुँचे।

कोटा स्टेशन पर आगरा जाने वाली पैसेंजर गाड़ी तैयार खड़ी थी। एक कुली हमें एक डिब्बे में बैठा गया। हमने वहीं सीटों पर सोने की व्यवस्था कर ली और रातभर आराम से सोते हुए सुबह आगरा के ईदगाह स्टेशन पर उतर गये। वहाँ से हम राजामंडी पहुँचे। इस प्रकार हमारी राजस्थान यात्रा सम्पन्न हुई। इस यात्रा में हमें बहुत आनन्द आया, हालांकि थोड़ा कष्ट भी हुआ। वैसे यात्रा अधूरी ही रह गयी, क्योंकि हम जोधपुर, बीकानेर तथा जैसलमेर नहीं जा सके। ईश्वर ने चाहा तो अगली बार हम सब जगह देखकर ही जायेंगे, परन्तु वह दिन अभी तक तो आया नहीं है।

(पादटीप : पिछले वर्ष २०१४ में अप्रैल में हमें राजस्थान यात्रा का सौभाग्य फिर प्राप्त हुआ. इस बार हमने जयपुर, अजमेर, पुष्कर, उदयपुर और रणकपुर के साथ-साथ, जैसलमेर और जोधपुर भी देखा. यह यात्रा भी बहुत आनंददायक रही. हमारे वयस्क हो चुके बच्चों ने ही इसका कार्यक्रम तय किया था.)

इस यात्रा के कुछ दिनों बाद ही मेरी साली गुड़िया का विवाह तय हो गया। उसका विवाह राजामंडी के उसी मोहल्ले के मूल निवासी श्री विजय कुमार जिन्दल के साथ हुआ, जो तब कमला नगर में रहने लगे थे। वे कपड़े के व्यापारी हैं और थोड़ा-बहुत शेयरों का काम भी कर लेते हैं। अब उन्होंने बसन्त विहार, कमला नगर में अपना मकान भी बना लिया है। गुड़िया का विवाह उसकी तीनों बड़ी बहनों के विवाह से अच्छा हुआ, क्योंकि इस बार उसकी मम्मी की तबियत ठीक थी और सभी नाते-रिश्तेदारों ने भी आर्थिक सहयोग दिया था। हमने भी इसमें यथाशक्ति सहयोग किया।

इस विवाह से एक दिन पहले हमारी श्रीमती जी बिना मुझसे पूछे और बिना बताये बाल कटवाने चली गयीं और बालों को छोटे करा आयीं। मुझे बहुत गुस्सा आया, क्योंकि मुझे लम्बे बाल पसन्द हैं और महिलाओं का बाल कटवाना वह भी पुरुषों से मुझे बिल्कुल पसन्द नहीं है। इसलिए मैंने कह दिया कि यदि फिर कभी इन्होंने बाल कटवाये, तो मैं अन्नू (उनके भाई) की शादी में नहीं आऊँगा। यह सुनते ही उनके सब घर वाले सहम गये। बाद में हमारे डाक्टर भाईसाहब ने भी श्रीमती जी को डाँटा कि जब इसे (अर्थात् मुझे) बाल कटवाना पसन्द नहीं है, तो क्यों कटवाती हो? उसके बाद से श्रीमती जी ने बाल कटवाने का नाम नहीं लिया है।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

5 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 48)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , यह काण्ड भी बहुत अच्छा लगा . माऊंट अभी देखने का मेरा सपना था लेकिन भगवान् को मंजूर . चितौर का किला मैंने देखा है . जोड़ पुर देखने का भी विचार था लेकिन ….. .आप की यह बहुत अच्छी लगी .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब !

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपकी माउन्ट आबू यात्रा और दूसरी बार की राजस्थान यात्रा के संस्मरण पढ़े जो रोचक एवं जानकारी से पूर्ण है। एक बार हम भी कन्याकुमारी, त्रिवेन्द्रम, रामेश्वरम, मदुरै तथा चेन्नई आदि की यात्रा करते हुए चेन्नई से अहमदाबाद पहुंचे थे। वहां से जोधपुर अपने बहनोई के पास जाना था। रास्ते में जब माउन्ट आबू आया था तो मुझे अचानक याद आया कि हमारी बहन की पुत्री उन दिनों माउन्ट आबू में थी और उनके पति रेलवे में थे। हमने बाहर एक कर्मचारी से पूछा तो बताया कि यही कहीं होंगे। वह मिल गए और ज्वरनि ब्रेक कर अपने घर ले गए और अगले दिन हमें माऊँट आबू ले गए थे। वहां हमने दिलवाड़ा मंदिर, नक्की झील आदि प्रसिद्ध स्थान देखे थे। जैसलमेर देखने का कभी प्लान ही नहीं बनाया क्योंकि उसकी महत्ता का पता नहीं और न कभी जानने का प्रयत्न किया। आज की क़िस्त के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार, मान्यवर ! नए नए स्थान देखना रोचक होता है. मुझे तो घूमने का बहुत शौक है. पर जाना कम हो पाता है. पर जब भी मौका मिलता है निकल लेता हूँ.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद श्री विजय जी। मेरी भी आदत घूमने की रही है। जुलाई २०१२ में सेवानृवृत्ति से २ या ३ माह पूर्व भी हम श्रीनगर, गुलमर्ग, पहलगाम आदि देख कर आये थे। फ़रवरी १५ में भी अहमदाबाद, टंकारा, सोमनाथ, द्वारका और पोरबन्दर घूम कर आये हैं। महर्षि दयानंद जी के जीवन चरित में यह उल्लेख मिलता है कि उन्होंने हिमालय से रामेश्वरम तक की एक या दो पर यात्रा की। यह यात्रा पर्यटन ना होकर सत्य की खोज और ईश्वर प्राप्ति के लिए योग्य गुरुओं की तलाश की थी जिसमे वह अन्तोगत्वा सफल हुवे थे।

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