अश्क की अभिलाषा
चाहता नहीं कोई मुझे
पलकों पर उसकी आ जाऊँ;
पर, मुखारविन्द पर अन्य के,
कजराई बनकर छा जाऊँ।
सम हैं सभी मुझको तो
क्या अपने, क्या बेगाने;
हर्ष में भी, कर्ष में भी,
आ जाता साथ निभाने।
नर से लेकर नारायण तक
सबका ही साथ दिया मैंने;
जर्द पड़े हुए कपोलों को,
हौले से सहलाया मैने।
ये तो नहीं चाहा मैंने कभी
अरुण कपोलों को डगर बनाऊँ;
स्वाति की भाँति सीप के भीतर,
लोचन में बसकर लोचन हो जाऊँ।
फिर भी बरबस आ जाता हूँ
मन जब भारी हो जाता है;
पीड़ा जो अपनों ने ही दी,
कब तक कोई सह पाता है?
सरिता बन बहा तारा नयन से
कर में जब चीर दिया था आधा;
अड़े हुए थे हरिचन्द कठोर बन,
सुत दाहन में डाली थी बाधा।
पीड़ा बन गिरा वैदेही लोचन से
सुचिता को जब अंगारों पर बैठाया;
मिथु कारण फिर अग्निपरीक्षा हेतु,
पतिव्रता को पुनः वनवास दिलाया।
वो मैं ही था जो बाल्मीक बन
सान्त्वना देने आया था;
वन-वन भटकती जनकसुता को,
भटकन से मुक्त कराया था।
भीगा अलक पांचाली का था
हरण चीर हुआ जब उसका;
क्लीव बन बैठे रहे पति उसके,
और भग्न हुआ मान सभा का।
भरी सभा में कोई नहीं था ऐसा
जो उसकी लाज बचाने आया था;
तब मैं ही लाया था कन्हाई को,
और कृष्णा का चीर बढ़या था।
किस किसकी पीड़ा का नीर बहाऊँ
मन कभी पसीजा नहीं काल का;
कितने ही घन मेघ बन बरसें नैना,
पर, मिटता नहीं लिखा भाल का।
कोमल, तनु तन-मन है मेरा
तपन ज़रा-सी से ढह जाता;
खेल करे ना कोई मुझसे,
बहा आँसू लौट नहीं पाता।
देव! इतनी ही अभिलाषा है मेरी
भिगोऊँ न कभी नयन किसी के;
छिपा रहूँ सदा अलकों-पलकों में,
लज्जा जैसे वसन हों कामिनी के।
बहुत अच्छी कविता. गहरी बात !
नवलेखक को दिए प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद सा,