सामाजिक

आज का सामाजिक प्राणी….

हम यहाँ गधा मजूरी कर रहे हैं
घर में कोई विशेष काम नहीं है
इसीलिए हमारे लिए विश्राम सहीं है
हमने खो दी है कुछ नया करने की क्षमता
जैसे यहाँ आकर हम रुक गए हैं
हमने खो दी है कुछ नया पाने की चाह
क्यूंकि हमारी इच्छाओं की पूर्ती का
सारा सामान यहीं उपलब्ध हो गया है
ऐसा नहीं है कि हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं
असल में हम केवल मूढ़ हो गए हैं
आलस्य रस के भोगी, आराम के पाबन्द
बस उंगलियाँ हैं चलती,
आँखें भी नहीं मिचकती
और मानसिक रूप से बंधनग्रस्त
क्या सामाजिक होने का यही अर्थ था
कि हम दुनिया को तो मुट्ठी में कर लें
लेकिन खुद के हाथों से निकल जाएँ
क्या ये विचारणीय नहीं है??

___सौरभ कुमार

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

One thought on “आज का सामाजिक प्राणी….

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूब ! आपके विचार मनन करने योग्य हैं.

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