आज का सामाजिक प्राणी….
हम यहाँ गधा मजूरी कर रहे हैं
घर में कोई विशेष काम नहीं है
इसीलिए हमारे लिए विश्राम सहीं है
हमने खो दी है कुछ नया करने की क्षमता
जैसे यहाँ आकर हम रुक गए हैं
हमने खो दी है कुछ नया पाने की चाह
क्यूंकि हमारी इच्छाओं की पूर्ती का
सारा सामान यहीं उपलब्ध हो गया है
ऐसा नहीं है कि हम किंकर्तव्यविमूढ़ हो गए हैं
असल में हम केवल मूढ़ हो गए हैं
आलस्य रस के भोगी, आराम के पाबन्द
बस उंगलियाँ हैं चलती,
आँखें भी नहीं मिचकती
और मानसिक रूप से बंधनग्रस्त
क्या सामाजिक होने का यही अर्थ था
कि हम दुनिया को तो मुट्ठी में कर लें
लेकिन खुद के हाथों से निकल जाएँ
क्या ये विचारणीय नहीं है??
___सौरभ कुमार
बहुत खूब ! आपके विचार मनन करने योग्य हैं.