स्मृति के पंख – 13
उन सब लड़कों के अक्सर बाहर से मुलाकाती भी आते रहते और घर से पार्सल भी आते रहते। लेकिन इतने दिन गुजर जाने के बाद उनकी सेवाभाव देखकर मुझे भी लगा कि कुछ सामान अब घर से मंगा लूं। मुलाकात के लिए तो इतनी दूर से कौन आयेगा और मैंने 2 कमीजें, 2 जोड़ा जुराबें, 2 स्वेटर, 2 नेकर एक जोड़ा बूट और एक चादर इतना सामान लिख दिया कि यह मुझे भेज दो। यहाँ जेल में अपने इस किस्म के पहनने की इजाजत है। मैंने यह सामान इसलिए मंगाया कि मैं भी उन्हें कुछ दे सकूं। तकरीबन 20-25 दिन बाद वो पार्सल आ गया। मुझे बुलवाकर खुलवाकर वो सामान दिया। उसमें कुछ पोस्टकार्ड और लिफाफे भी थे, जो उन्होंने रख लिए कि यह जेल में नहीं दिये जाते। मेरे पास कपड़े तो अपने थे ही, मैने सबको देने की बहुत कोशिश की, लेकिन किसी ने लिए नहीं। जब मेरी रिहाई होने लगी, 6 महीने और 8 दिन गुजर चुके थे। मुझे दफ्तर में काम करने वाले एक साथी ने बताया कि तेरे रिहाई के कागज आ गए हैं। तकरीबन 4 बजे शाम जेल से मुझे रिहा कर दिया गया। वजन करने पर 12 पौंड वजन मेरा बढ़ गया था। 5 बजे तक सब साथियों को मिलता रहा। मिले जुले जज्बात थे, आंखों में आंसू थे, उन लोगों से बिछुड़ते हुए, जिन्होंने बहुत प्यार दिया था और खुशी थी घर जाने की।
मेरे साथ 4 और लड़कों की भी रिहाई हुई थी। उनके तो रिश्तेदार आए थे, चले गए। मेरा कोई नहीं पहुँचा था। मैं वहाँ से पैदल ही स्टेशन तक गया। 2 रुपये 7 आने खर्चा के लिए और मरदान का टिकट जेल की तरफ से मिला था। स्टेशन पहुँचने पर पता चला कि गाड़ी सुबह जाएगी कि सर्दी का मौसम था मेरे पास ओढ़ने के लिए सिर्फ एक चादर थी वो ओढ़कर सोना तो मुश्किल था, जागता ही रहा। मेरे पास जो सामान था, उसमें से एक स्वेटर मैंने पहन ली और दूसरी प्रेस इंचार्ज उस मुसलमान को दी। वो लेने को बिल्कुल तैयार न था। मैंने उसे यह कहकर जबरदस्ती दी कि इससे मेरी याद तेरे को आती रहेगी। बाकी कपड़े शम्भूनाथ और रामचन्द्र को दे आया कि जिस किसी को जरूरत हो दे देना।
सुबह 6 बजे गाड़ी में बैठकर रवाना हुआ। पहले सीधा मरदान गया। पुलिस स्टेशन में हाजरी देना जरूरी था। फिर सीधा घर आया। दुकान में दाखिल हुआ। पिताजी, भ्राताजी को प्रणाम किया, उन्होंने गले लगाया। दुकान की हालत मुझे बहुत खराब लगी। घर जाकर माताजी, भाभीजी को प्रणाम किया। उनके चेहरे पर भी वैसी खुशी न थी, जैसी मेरे आने से होनी चाहिए। मैंने पूछा कि रिखीराम नहीं आया, कहाँ है? तो माताजी फूट-फूटकर रोने लगी। मैंने पूछा- ‘क्या हुआ? बोलो तो सही, बात क्या है, रो क्यों रहे हो?’ तब पता चला कि हमसे मुलाकात करके आने के बाद उसके दिल पर कोई ऐसा सदमा हुआ कि वो दोनों भाइयों को भूल न सका और ऐसे ही पूछता कि क्यों बंद हैं? खाना कहाँ खाते है? तबीयत उसकी बिगड़ती ही गई। बावजूद इलाज के उसकी हालत ठीक न हो पाई और तुम्हें याद करते हुए इस दुनिया से चल बसा। माताजी ने कहा- आपके बाद आपके नन्हें भतीजे का जन्म हुआ और वो भी 15 दिन बाद इस संसार से चला गया। सुनकर मेरी तो चीख निकल गई और माताजी और भाभीजी से लिपट गया और कहा कि घर के 2 चिराग बुझ गए और आपने मुझे लिखा तक नहीं। उन्होंने कहा- तुम जेल में थे, हमने यह दुखदायी खबर तुमको देना मुनासिब नहीं समझा। जीवन में दुख-सुख तो आते रहते हैं और इंसान इसी संघर्ष में जुटा रहता है। खैर, वक्त की चादर दुख-सुख को अपने लपेट में ले लेती है।
गाँव से कहीं बाहर जाना होता तो एक कांसटेबल और एक सी0आई0डी0 का आदमी उनको इतला देकर जाना होता। सी0आई0डी0 का जो आदमी था जात का ब्राह्मण था। खुशहाल चन्द उसका नाम था, हरिपुर हजारे की तरफ का था। हमारे नजदीक ही उसको मकान मिल गया और वो बीवी बच्चों को ले आया उन लोगों का संबंध हमारे साथ इतना गहरा हो गया कि जैसे अपने ही लोग हों। उसकी बीवी और 2 बच्चे थे। तकरीबन सारा दिन हमारे घर ही रहते। मेरे दिल में अब भी देश के लिए कुछ करने की लगन थी, लेकिन समझ नहीं पाता कि क्या करूं। आसानन्द नाम का एक लड़का था, मरदान दुमेल गंज में रहता था। उसका एक दूसरा साथी था मोहम्मद शरीफ, वो दोनों ही वैसे ही विचारधारा रखते थे। किसी बड़े अंग्रेज को कत्ल करने को वो मुझसे मिले। हमने एक स्कीम भी बना ली और यह फैसला हुआ कि डिप्टी कमिश्नर मरदान को मारने का प्लान बनाया है। किस जगह मारना है, किसने गोली चलानी है, यह सब तय कर लिया। लेकिन मैंने कहा कि यह करने से पहले मैं भगतराम से जरूर सलाह लूँगा। भगतराम जेल में था, उसने मुझे कहा था, अगर मुझसे मिलना हो तो एक दुकानदार जिसका नाम वशेशरनाथ है, चौक घण्टाघर में गोटा, जरी, किनारी की दुकान करता है, उसको रूक्का लिखकर दे दिया करें, वो मेरे तक पहुँचा जायेगा और जवाब भी उससे ले लिया करें। लेकिन मैंने तो एक भारी गल्ती कर डाली। जो स्कीम हमने बनाई थी उसको बजरिया डाक वशेशरनाथ को भेज दिया।
भगतराम को जब खत मिला, उस दिन जमनादास (उनके बड़े भाई) उनसे मुलाकात करने आए थे। उसकी जबानी भगतराम ने मुझे आने के लिए कहा कि जल्दी मुझे मिले। भगतराम वगैरह से मिलना होता तो किसी दरख्वास्त वगैरह की जरूरत नहीं होती थी। ड्योढ़ी पर पहुँचकर जो भी संत्री हो उसे कह देते कि बी0आर0 को मिलना है। एक तो बी0आर बाहर आ जाता और साथ में मिलकर बातचीत भी ठीक से हो जाती। दूसरे ही दिन मैं उन्हें मिला। पहले तो उसने मुझे बहुत डांटा और कहा बशेशरनाथ हमारा तेरे जैसा ही साथी है। अण्डरग्राउण्ड काम करने के लिए। अगर डाक सेंसर हो जाती, तो पता है क्या होता? एक तो वशेशरनाथ रगड़ा जाता, दूसरे तुम्हारी जमानत जब्त हो जाती और तीसरा मुझ पर जेल में एक और केस बन जाता। बहुत एहतयात और संभलकर चलना है। सी0आई0डी0 हमारी निगरानी में रहती है और फिर एक अंग्रेज को मारने से देश आजाद थोड़े होता है। भाईसाहब हरिकिशन ने शहादत दे दी, इतना क्या कम है। हमें तो अब हर समय जागते रहना है और जब कभी समय आया, तो फिर हम अंग्रेज पर वार करेंगे, लेकिन अभी नहीं। ऐसा समझाने पर मुझे उसने खास तौर पर चेतावनी दी कि ऐसे काम में किसी के हाथ में मत खेलना और न ही किसी को ऐसी सलाह तुमने देनी है।
(जारी…)
विजय भाई , सचमुच आज का परसंग पड़ कर तो रोने को मन कर आया . जिंदगी में ऐसे दिन बहुत मुश्किल होते हैं . सब से बड़ी बात जो आजादी की खातिर हमारे बजुर्गों ने किया , उस का बदला हम कभी चुका नहीं पायेंगे .
लेखक के जेल में रहते हुए घर के दो-दो चिराग बुझ जाने की कहानी पढ़कर आँखें नम हो गयीं. जिंदगी में हमें क्या क्या झेलना पड़ता है.