ग़ज़ल
तुम्हें ख़त लिख रहा हूँ |
लगी लत लिख रहा हूँ ||
दीवारें वालिदा को |
पिता छत लिख रहा हूँ ||
बड़ों से झुक के मिलना |
लियाकत लिख रहा हूँ ||
ये कत्लेआम दहशत |
कयामत लिख रहा हूँ ||
मुहब्बत से ही आदम |
सलामत लिख रहा हूँ ||
बढ़े जो दाम रोटी |
कसालत लिख रहा हूँ || (# कसालत = आलस्य)
बहस घर वापसी पर |
सियासत लिख रहा हूँ ||
— अनन्त आलोक
बढ़िया ग़ज़ल !
क्या बात है अनन्त आलोक जी… उम्दा…!!
बड़ों से झुक के मिलना |
लियाकत लिख रहा हूँ ||
बहुत बढ़िया… वाह वाह!!