कसमे वादे प्रण संकल्प !
किनारों पे चलते क़दमों ने लहरों से
वादा करने की ठानी है
कदम चूमकर लहरों ने कहा
ये राहगीरों की आदत पुरानी है
पेड़ों के नीचे कुल्हाड़ी ने
अब कुछ सुस्ताने की ठानी है
थपथपाकर कटी डाली ने कहा
कातिल की ये अदा पुरानी है
अपने खेतों में किसानों ने
अपने जिस्म बोने की ठानी है
इसकी भी लागत के अनुपात में
सरकार ने फसल की कीमत मांगी है
दुआओं ने अब खुदा से
रिश्ता तोड़ने की ठानी है
पैसे के बदले ही पैसा मिलेगा
तेरे दर की भी यही कहानी है
हर पड़ोसी ने बगल की
खिड़की बंद करने की ठानी है
हर लिबास में इंसान ही है
ये बात मजहब ने नहीं मानी है
हवाओं को भी गुब्बारों ने
कैद में रखने की ठानी है
हवा में उड़ने वालों ने अभी
सुई की औकात नहीं जानी है
— सचिन परदेशी ‘सचसाज’
बढ़िया !
बढ़ बढ़कर बोलने वालों ने, कविता लिखने की ठानी है !
पर हर तुकबंदी कविता नहीं होती, यह बात नहीं जानी है !!