एक उपन्यास की मौत
यूँ तो मुझमें सब कुछ कर देखने की ललक और इसके लिये हौसला भी पर्याप्त है परन्तु, जल के गर्भ में क्या छिपा है, यह तो उसमें उतर कर ही मालूम होता है। यह भी सच है कि मैं उपस्थित से शीघ्र ऊब जाता हूँ और कुछ और नया करने की लालसा जाग जाती है। अवध की बोलचाल में कहूँ तो एक अजीब सा आवारापन है मेरे मिज़ाज में। इसी सनक के चलते कलम पकड़ ली और ‘मन की’ को कागज़ पर उतारने लगा। कुछ हितैषियों की कृपा से ‘कादम्बिनी’ आदि में कुछ एक लेख भी छपे। अच्छा भी लगा और इस नये शौक में आगे बढ़ने की प्रेरणा भी मिली। ग़ज़लकारी की धुन सवार हुई तो एक उस्ताद की राय मान उर्दू सीखी । मुजफ्फ़र रज़मी (लम्हों ने खाता की थी …) निदा फ़ाज़ली (घर से मस्जिद है बहुत…) आदि के साथ बैठने का सौभाग्य मिला ।
अभी मैं अपने फ़न में कच्चा ही था जब 11 सितंबर, 2001 को अमरीका के विश्व व्यापार केन्द्र पर आतंकी हमला हुआ। टीवी पर दिखाये जा रहे दृष्यों ने मानवीय चेतना को झकझोर दिया । इस कृत्य का कारण और कारक जानने की उत्सुकता ने पन्ने रंगने शुरू कर दिये । ऐतिहासिक घटनाओं पर लिखना आसान नहीं होता है क्योंकि आपके निष्कर्ष उपलब्ध सुबूतों पर परखे जाने हैं। परन्तु एक जुनून के वशीभूत हो दिन रात लिखते हुए आठ सौ लिखित पन्नों का एक दस्तावेज़ अक्टूबर 2001 तक तैयार हो गया, जिसमें, एक कहानी के साथ ऐतिहासिक घटनाओं को जोड़ने का मैंने नया प्रयास किया था। अंग्रेजी में तो इस तरह के उपन्यास मिलते हैं पर मेरी समझ से हिन्दी में यह एक अनूठा प्रयास था। इसको मैंने ‘जिहाद’ का नाम दिया और अनूदित हो कर ये उपन्यास जनवरी 2002 तक छपने के लिये तैयार हो गया।
इसमें तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर आगे होने वाली कई घटनाओं की कल्पना की गयी थी जिसमें से संसद पर हमले की घटना (13 दिसंबर, 2001) किताब के संपादन काल में ही घटित हो गयी। किताब की एक प्रति जो घरेलू प्रिंटर पर निकाली गयी थी, कई महीनों तक अंसारी रोड, दिल्ली के गलियारों में टहलती रही पर कोई छापने को तैयार नहीं हुआ। शायद विषय वस्तु की संवेदनशीलता, भड़काऊ शीर्षक या फिर अपरिचित लेखक इसका कारण रहा हो। जैसे जैसे पुस्तक में वर्णित घटनाएँ सामने आने लगीं हताशा भी उत्तरोत्तर बढ़ती गयी । काश की यह उपन्यास वक्त से छप जाता पर ऐसा मेरे भाग्य में नहीं था।
कालांतर में ‘अपनी किताब स्वयं छापो’ योजना के तहत, यह जानते हुए भी की पाठक मेरे दावे को नकार सकते हैं, मैं इसे दुनिया के सामने लाने का लोभ संवरण न कर सका। Penguin Publishers की सब्सीडियरी Partridge India ने इसे, ‘ऑपरेशन बोजिंका’ के बदले हुए नाम से छापा तो, पर मूल्य इतना रख दिया कि आम पाठक की पहुँच से बाहर हो गयी। यह किताब अमेज़ोन और फ्लिपकार्ट पर उपलब्ध तो है पर खरीददार नहीं है। संसद पर हमला, ईराक, अफगानिस्तान और पाकिस्तान की मिलीभगत, लादेन का पाकिस्तान में छिपा होना आदि ऐसी कई कल्पनाएँ स्वयं सिद्ध हो चुकी हैं और मैं बस हाथ मल कर यह कहते हुए रह जाता हूँ कि ‘ये सब मेरी किताब में लिखा हुआ है ! कोई पढ़े तो’।
यह सत्य है कि ये तमाम घटनाएँ मैंने उस समय सोच ली थीं जब अमरीका ने ईराक पर हमला भी नहीं किया था, पर मैं जानता हूँ कि आज मेरे दावे को स्वीकारने वाला शायद ही कोई हो। हाँ, हँसने वाले बहुत होंगे । खैर… ऐसा है तो ऐसे ही सही ।
“कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता;
कभी ज़मीं तो कभी आसमाँ नहीं मिलता”
– निदा फ़ाज़ली
आपका संस्मरण पढ़कर आश्चर्यचकित हो गया. शीर्षक से मैंने समझा था कोई लघुकथा होगी, पर पूरा पढ़कर दुःख हुआ. आपका एक अच्छा उपन्यास पाठकों के सामने सही रूप में नहीं आया. हिंदी में उपन्यास लेखकों के साथ यह बिडम्बना है कि यहाँ फुटपाथयोग्य उपन्यास ही प्रायः बिका करते हैं, शेष में से अधिकांश पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह जाते हैं या लेखक की अलमारी में धूल खाते हैं.
लेकिन निराश न हों बंधु. यदि आप चाहें तो इस उपन्यास को हम अपनी वेबसाइट पर धारावाहिक लगा सकते हैं. शर्त यह है कि उसमें इस्लाम पर सीधे आक्षेप या अपमानजनक बातें न हों, जिनसे हम किसी कानूनी चक्कर में फंस जाएँ. इसलिए इसको पहले पूरा पढना चाहूँगा.
आपका धन्यवाद । इसी डर से ही शायद ये वक्त से नहीं छप पायी। पर इसमें ऐसा कुछ भी नहीं है जो किसी को भी उद्वेलित करे। मेरे मुसलमान दोस्तों ने भी इसे पढ़ा है। मैं आप को किताब मेल कर देता हूँ , आप स्वयं देख परख लें।
आप की लगन और जज्बे को सलाम करता हूँ मनोज पाण्डेय जी, आप की संजत बोली और भाषा यह बताती है की जिहाद एक समुचित उपन्यास होगा पर फिर वही विडम्बना, प्रकाशक , प्रकाशन और रचनाकार की ग़ुमसुधाइ, खैर कलम चलती रहेगी और साहित्य खिलता रहेगा, यही हम कर सकते हैं, साधुवाद मान्यवर……..