ग़ज़ल
मेरे दोस्त तुझको ये क्या हो गया।
तेरा रुख़ कितना बदल हो गया।।
वफ़ा मैंने की है वफ़ा चाहता हूँ।
न जाने तू क्यों बेवफा हो गया।।
बदल सी गयी तेरी नजरें हैं दिलवर।
तेरा कोई और हमसफ़र हो गया।।
मुहब्बत का मुझको सिला ये मिला।
मेरा प्यार ही अब सज़ा हो गया।।
‘अरुण’ जाने क्यों वो बदल से गए।
मेरा दर्द उनका मजा हो गया।।
— अरुण निषाद
अच्छी ग़ज़ल !
अग्रज अभी तो आप सबसे बहुत कुछ सीखना…सादर प्रणाम…
मेरे दोस्त, आप इसे चाहे ग़ज़ल की संज्ञा दें पर ये उस विधा की बंदिशों से मेल नहीं खाती । अगर वो ग़ज़ल है तो उसमें रदीफ (वो शब्द जो खुद को दोहराते हों) और काफ़िया (स्वर का टेक) ज़रूरी है।
इस ग़ज़ल में मैंने उचित संशोधन कर दिया है. अब यह ‘ग़ज़ल’ कही जा सकती है. कृपया पुष्टि करें.
मतले के शेर में, अर्थात, पहले शेर की दोनों पंक्तियों में काफ़िया और रदीफ़ एक ही होना चाहिये । फिर आगे के शेरों की दूसरी पंक्तियों में यही काफ़िया और रदीफ दोहराया जाना चाहिये । अभी भी ये तुकबंदी की हद से बाहर नहीं आयी है। बहर और वज़न की बातें बाद में करेंगे । निषाद जी, बुरा नहीं मानियेगा। मेरी शुरुआती ग़ज़लों के तो सिर-पैर ही नहीं होते थे । मैं कई बार हँसी का पात्र भी बना हूँ।
साभार धन्यवाद सर जी..प्रणाम..अगर इसी तरह प्रोत्साहन मिलता रहा तो प्रयास जारी रहेगा..
सर यह आप गुरुजनों का बड़प्पन है की आप कि गलतियां बता रहे है…पर किस जगह क्या होना चाहिये यह भी बताने का कष्ट करें
किसी भी उस्ताद शायर को उठा कर बारबार पढ़े और शब्दों के प्रयोग पर ध्यान दें, काफ़िया और रदीफ की समझ आ जाएगी । गा कर देखने से मालूम हो जाएगा कि कहीं बहर से बाहर तो नहीं है।
धन्यवाद सर जी।
2015-05-18 17:41 GMT+05:30 Disqus :
बहुत अच्छी ग़ज़ल .
सादर प्रणाम सर जी