गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

मेरे दोस्त तुझको ये क्या हो गया।
तेरा रुख़ कितना बदल हो गया।।

वफ़ा मैंने की है वफ़ा चाहता हूँ।
न जाने तू क्यों बेवफा हो गया।।

बदल सी गयी तेरी नजरें हैं दिलवर।
तेरा कोई और हमसफ़र हो गया।।

मुहब्बत का मुझको सिला ये मिला।
मेरा प्यार ही अब सज़ा हो गया।।

‘अरुण’ जाने क्यों वो बदल से गए।
मेरा दर्द उनका मजा हो गया।।

अरुण निषाद

डॉ. अरुण कुमार निषाद

निवासी सुलतानपुर। शोध छात्र लखनऊ विश्वविद्यालय ,लखनऊ। ७७ ,बीरबल साहनी शोध छात्रावास , लखनऊ विश्वविद्यालय ,लखनऊ। मो.9454067032

11 thoughts on “ग़ज़ल

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी ग़ज़ल !

    • अरुण निषाद

      अग्रज अभी तो आप सबसे बहुत कुछ सीखना…सादर प्रणाम…

  • Manoj Pandey

    मेरे दोस्त, आप इसे चाहे ग़ज़ल की संज्ञा दें पर ये उस विधा की बंदिशों से मेल नहीं खाती । अगर वो ग़ज़ल है तो उसमें रदीफ (वो शब्द जो खुद को दोहराते हों) और काफ़िया (स्वर का टेक) ज़रूरी है।

    • विजय कुमार सिंघल

      इस ग़ज़ल में मैंने उचित संशोधन कर दिया है. अब यह ‘ग़ज़ल’ कही जा सकती है. कृपया पुष्टि करें.

      • Manoj Pandey

        मतले के शेर में, अर्थात, पहले शेर की दोनों पंक्तियों में काफ़िया और रदीफ़ एक ही होना चाहिये । फिर आगे के शेरों की दूसरी पंक्तियों में यही काफ़िया और रदीफ दोहराया जाना चाहिये । अभी भी ये तुकबंदी की हद से बाहर नहीं आयी है। बहर और वज़न की बातें बाद में करेंगे । निषाद जी, बुरा नहीं मानियेगा। मेरी शुरुआती ग़ज़लों के तो सिर-पैर ही नहीं होते थे । मैं कई बार हँसी का पात्र भी बना हूँ।

      • अरुण निषाद

        साभार धन्यवाद सर जी..प्रणाम..अगर इसी तरह प्रोत्साहन मिलता रहा तो प्रयास जारी रहेगा..

    • अरुण निषाद

      सर यह आप गुरुजनों का बड़प्पन है की आप कि गलतियां बता रहे है…पर किस जगह क्या होना चाहिये यह भी बताने का कष्ट करें

      • Manoj Pandey

        किसी भी उस्ताद शायर को उठा कर बारबार पढ़े और शब्दों के प्रयोग पर ध्यान दें, काफ़िया और रदीफ की समझ आ जाएगी । गा कर देखने से मालूम हो जाएगा कि कहीं बहर से बाहर तो नहीं है।

        • अरुण निषाद

          धन्यवाद सर जी।

          2015-05-18 17:41 GMT+05:30 Disqus :

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी ग़ज़ल .

    • अरुण निषाद

      सादर प्रणाम सर जी

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