जहाँ चाह वहाँ राह
चाहत पर ही सब निर्भर है। हम आप जो ठान लेते हैं उसे पूरा कर ही दम लेते हैं। सफलता विफलता हमारी इच्छा शक्ति पर ही निर्भर है।
दो भाई थे। दोनों भाई को पढाने के लिए उनकी माँ बहुत मेहनत करती थी। लेकिन बडे भाई को पढने की ही इच्छा नहीं थी। उसकी माँ बहुत परेशान रहती थी। बहुत प्यार से शिक्षा के गुण बताती। कभी झूंझला कर डांट देती। कभी सजा देती तो, बेटा गुस्से में बोलता- “देखतअ बानी कि कइसे पढाअ लेतअ बाडू तू ….”
माँ बेटे को स्कूल भेजती। बेटा घर लौट कर बाहर में छिप कर खिडकी पर बैठ जाता। छुट्टी का समय होता तो घर में आ जाता। बडे बेटे के लिए घर में भी शिक्षण की व्यवस्था की जाती। पढता छोटा बेटा। ….अंततः बडा बेटा नहीं ही पढा लाखो जतन के बाद भी। पूरा परिवार के शिक्षित होने के बाद भी।
बड़ा बेटा बड़ा हुआ, शादी हुई, उसे भी बेटा हुआ, अपने बेटा को भी पढ़ने के लिए प्रेरित नहीं किया, जिससे उसका बेटा भी बिना पढ़े रह गया।
इच्छा शक्ति ऐसी दृढ होती है। लक्ष्य सही गलत अलग बात है ……।
बिल्कुल सही कहा आपने चाह बेशक गलत ही हो पर दृढ है तो वही होकर रहता है जो हम चाहें |
बहुत अच्छी बात ! अगर चाह हो तो हज़ार राह निकल आती हैं. अगर चाह ही न हो तो खुले रास्ते पर भी कोई एक कदम भी नहीं चल सकता.
विभा बहन, यहाँ चाह वहां राह ,पड़ कर बहुत अच्छा लगा . जब इच्छा ही ना हो तो जितना मर्जी जोर लगा लो इंसान सीखेगा ही नहीं . मुझे इतनी हिंदी आती नहीं थी , पंजाब में पड़ा और मुश्किल से दो तीन वर्ष हिंदी पडी . मैं अचानक डिसेबल हो गिया . रोता रहता था , बोल नहीं सकता था , चल नहीं सकता था . अचानक एक तबदीली आई .मेरी पत्नी ने कहा , ” किओं नहीं आप रेडिओ को कहानी लिख कर भेजते ?”. मैंने पत्नी के जोर देने पर एक कहानी लिख कर रेडिओ को भेजी जो बहुत पसंद की गई . फिर मैं नवभारत टाइम्ज़ में लीला टेवानी के ब्लॉग को पड़ कर एक कॉमेंट दिया , जिस से शुरू हो गिया हमारा आपिस में इन्तार्नैत के माधिअम से बात चीत करना . फिर विजय भाई की हौसला अफजाई से बहुत मसरूफ रहना लगा हूँ . अब चाह है और राह भी मिल गिया , जिस से मेरी डिसेबिलिटी मेरे कंट्रोल में है , अब मुझे इस की कोई परवाह नहीं है . जब चाह ही न हो तो राह भी मिलता नहीं .
आपका जीवन हम सब के लिए प्रेरणा का स्रोत है, भाई साहब !
सलाम है आपके जज्बे को |