मोबाईल
जिन्दगी अब तो हमारी मोबाईल हो गई
भागदोड मे तनिक सुस्तालू सोचता हूँ मगर
रिंगटोनों से अब तो रातें भी हेरान हो गई |
बढती महंगाई मे बेलेंस देखना आदत हो गई
रिसीव काल हो तो सब ठीक है मगर
डायल हो तो दिल से जुबां की बातें छोटी हो गई |
मिस्काल मारने की कला तो जेसे चलन हो गई
पकड़म -पाटी खेल कहे शब्दों का इसे हम मगर
लगने लगा जेसे शब्दों की प्रीत पराई हो गई |
पहले -आप पहले -आप की अदा लखनवी हो गई
यदि पहले उसने उठा लिया तो ठीक मगर
मेरे पहले उठाने पर माथे की लकीरे चार हो गई |
मिस्काल से झूठ बोलना तो आदत सी हो गई
बढती महंगाई का दोष अब किसे दे मगर
हमारी आवाजे भी तो अब उधार हो गई |
दिए जाने वाले कोरे आश्वासनों की भरमार हो गई
अब रहा भी तो नहीं जाता है मोबाईल के बिना
गुहार करते रहने की तो जेसे आदत बेकार हो गई |
मोबाईल ग़ुम हो जाने से जिन्दगी घनचक्कर हो गई
हरेक का पता किस -किस से पूछें मगर
बिना नम्बरों के तो जेसे जिन्दगी रफूचक्कर हो गई
— संजय वर्मा “दृष्टी”
मोबाइल पर अच्छी कविता !
बहुत खूब .