आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 51)
1993 में ही मैंने एक बार ताइक्वांडो सीखने का निश्चय किया। मेरे कार्यालय के एक कर्मचारी श्री संजीत शेखर का रूम पार्टनर ताइक्वांडो सीख रहा था। उससे पता चला कि नदेसर में ही कटिंग मैमोरियल के मैदान में ताइक्वांडो सिखाई जाती है, जिसकी फीस केवल 50 रुपये महीने थी। इसका पता चलते ही मैं नये वर्ष से अर्थात् 1 जनवरी 1993 से ताइक्वांडो सीखने जाने लगा। प्रातः 5 या 5.30 बजे हमें पहुँचना होता था और कम से कम एक घंटा लगाना होता था। उन दिनों बाबरी ढाँचा टूट जाने के कारण संघ पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और शाखाएँ बन्द थीं। इसलिए प्रातः इस कार्य के लिए जाने में मुझे कोई बाधा नहीं थी।
वहाँ श्री मनोज जी उस केन्द्र के प्रमुख थे। वे स्वयं ब्लैक बेल्ट (श्रेणी 2) प्राप्त कर चुके थे और बहुत अच्छे थे। लेकिन हमें सिखाने का कार्य श्री रवीन्द्र जी किया करते थे। वे भी श्रेणी 1 का ब्लैक बेल्ट प्राप्त कर चुके थे। वे सिखाने में बहुत अच्छे थे, परन्तु अनुशासन पर अधिक जोर देते थे। देरी से आने वाले लड़कों को वे दोनों हाथों में ईंट उठाये रखकर पूरे मैदान का चक्कर लगाने भेज देते थे। इसलिए अधिकांश लड़के उनसे डरते थे। लेकिन मेरे साथ उनका व्यवहार बहुत अच्छा था। शायद इसलिए कि उन्हें मालूम था कि मैं बैंक में मैनेजर हूँ।
हमें वहाँ बहुत व्यायाम करना पड़ता था। इससे प्रारम्भ में हमारे शरीर में दर्द रहता था। लेकिन शीघ्र ही मनोज जी की बतायी हुई कोई होम्योपैथी की दवा हमने खायी और दर्द जाता रहा। फिर भी किसी-किसी दिन अधिक व्यायाम या अभ्यास हो जाता था, तो पूरे शरीर में दर्द होता था, जो एक-दो दिन में अपने आप ठीक हो जाता था। मैंने प्रारम्भ में ही अपनी ड्रेस बनवा ली, जिसमें सफेद एप्रिन, सफेद कुर्ता और सफेद ही बेल्ट थी। सफेद बेल्ट सबको प्रारम्भ में ही दे दी जाती है। उसके बाद जैसे-जैसे परीक्षाएँ पास करते जाते हैं, वैसे-वैसे ऊँचे बेल्ट मिलते जाते हैं, जैसे पीला, हरा, नीला, लाल, काला आदि। हर तीन महीने बाद कोई भी अगले बेल्ट के लिए परीक्षा दे सकता है।
तीन महीने में मैंने बहुत सी क्रियाएँ और प्रहार आदि सीख लिए, जैसे टे काॅग (जिसको गलती से टेक आॅफ कह दिया जाता है) आदि। मेरा शरीर भी काफी मजबूत हो गया था और हाथों में बहुत शक्ति आ गई थी। जब मुझे सीखते हुए तीन महीने हो गये, तो मैं पीले बेल्ट के लिए परीक्षा दे सकता था, परन्तु उस दिन मुझे बैंक की ड्यूटी से जाना पड़ा। इसलिए अगले महीने ही परीक्षा दे पाया। मैं द्वितीय श्रेणी में उत्तीर्ण हो गया और पीले बेल्ट का अधिकारी हो गया। प्रत्येक व्यक्ति को एक कार्ड दिया जाता है, जिसमें बेल्ट और फीस का भी विवरण होता है। कोई व्यक्ति जैसे-जैसे परीक्षाएँ पास करता जाता है, उसके कार्ड पर उसकी प्रविष्टि होती जाती है। मेरे कार्ड पर भी पीला बेल्ट मिलने की प्रविष्टि की गयी। यह कार्ड अभी भी मेरे पास सुरक्षित है।
जब किसी को कोई ऊँचा बेल्ट मिलता है तो उसके वर्तमान बेल्ट पर ही नये रंग का कपड़ा चढ़ा दिया जाता है। मैंने भी अपने सफेद बेल्ट पर पीला कपड़ा चढ़ाने का आदेश टेलर को दे दिया। परन्तु मैं उस बेल्ट को वापस नहीं ले सका। इसका कारण यह है कि जब मैं ताइक्वांडो सीख रहा था तो मेरे यार-दोस्तों और पत्नी जी ने टोकना शुरू कर दिया था कि इस उम्र में ताइक्वांडो सीख रहे हो, क्या करोगे सीखकर? रोज-रोज की टोका-टोकी से तंग आकर मैंने ताइक्वांडो सीखना वहीं छोड़ दिया। बाद में जब अदालती आदेश से रा.स्व.संघ पर से प्रतिबंध भी हट गया, तो मैं शाखा जाने लगा।
उन्हीं दिनों की बात है। हमारे बैंक ने उत्तर प्रदेश की शाखाओं के लिए लिपिकों की भर्ती के लिए एक परीक्षा आयोजित की थी। बैंक सेवा भर्ती बोर्ड इस कार्य को करता था, जो पूरी तरह हमारे बैंक द्वारा चलाया जाता था। इन परीक्षाओं में बैंक अधिकारियों को कई जिम्मेदारियाँ दी जाती हैं, जैसे परीक्षा केन्द्र की व्यवस्था देखना, पर्चों और कापियों का हिसाब रखना तथा बंडल बनाना, परीक्षा कक्षों का निरीक्षण करना आदि। इन सभी कार्यों के लिए नकद पारिश्रमिक का भुगतान किया जाता है। मैं पहले भी कई बार कक्ष निरीक्षक रह चुका था। परन्तु इस बार मुझे बड़ी जिम्मेदारी दी गई।
उस दिन वाराणसी में 36 परीक्षा केन्द्र थे, जो पूरे शहर के विभिन्न विद्यालयों में बिखरे हुए थे। प्रत्येक परीक्षा केन्द्र की जिम्मेदारी एक-एक बैंक मैनेजर या अधिकारी को दी गयी थी, जिसे वेन्यू बैंक आफीसर कहा जाता है। वह सम्बंधित विद्यालय के प्रधानाचार्य की सहायता से सारी व्यवस्था करता था। मुख्यतः उसी विद्यालय के शिक्षकों से कक्ष निरीक्षक का कार्य लिया जाता है, हालांकि आवश्यकता पड़ने पर कोई भी विश्वसनीय व्यक्ति कक्ष निरीक्षक बनाया जा सकता है। केन्द्र अधिक होने के कारण सबको चार समूहों में बाँटा गया और प्रत्येक समूह के लिए एक-एक विशेष अधिकारी लगाया गया। एक समूह की जिम्मेदारी पूरी तरह मुझे दी गयी थी। मेरा कार्य अपने समूह के सभी केन्द्रों को पारिश्रमिक का भुगतान करना और पर्चों तथा कापियों के बंडलों को सँभालना था। इस हेतु एक कार भी मुझे प्रदान की गयी। उस समय मेरे पास लगभग 5 लाख रुपये नकद थे, जिनका पूरा हिसाब मुझे रखना था। मैंने अपनी जिम्मेदारी को पूरी कुशलता से निभाया, जिसकी सभी ने बहुत तारीफ की।
लेकिन इस परीक्षा में अधिक महत्वपूर्ण कार्य जो मैंने किया वह परीक्षा से पहले था। वह था परीक्षार्थियों के लिए प्रवेश पत्र बनाना। वास्तव में बहुत से लोगों को डाक से इस परीक्षा का प्रवेश पत्र ही नहीं मिला था। अतः उनके लिए अखबारों में सूचना निकाली गयी कि जिनको प्रवेश पत्र नहीं मिला है, वे मंडलीय कार्यालय से दूसरा (डुप्लीकेट) प्रवेश पत्र बनवा सकते हैं। यह सूचना निकलते ही मंडलीय कार्यालय पर परीक्षार्थियों की भीड़ एकत्र हो गयी, जो डुप्लीकेट प्रवेश पत्र लेने आये थे। हम उनसे एक पर्ची पर उनका नाम, पिता का नाम और जन्मतिथि भरवा रहे थे और इन सूचनाओें के आधार पर कम्प्यूटर से छपी हुई लिस्ट, जो मोटी-मोटी चार जिल्दों में थी, में उनका नाम खोजकर उनका राॅल नं. तथा परीक्षा केन्द्र भी लिखकर प्रवेश पत्र बनाते थे। लिस्ट की दो प्रतियाँ तैयार की गई थीं और प्रत्येक जिल्द की जिम्मेदारी एक-एक बैंक कर्मचारी या अधिकारी को दी गयी थी। इस प्रकार लगभग पूरा मंडलीय कार्यालय ही इस काम में व्यस्त था।
उस लिस्ट में अधिकांश लोगों का नाम तो आसानी से मिल जाता था, परन्तु बहुतों का नाम खोजना बहुत कठिन होता था। इसके कई कारण हो सकते थे, जैसे नाम की स्पेलिंग गलत टाइप होना, जन्मतिथि गलत भर जाना आदि। नाम गलत टाइप हो जाने पर उसको खोजना अत्यन्त कठिन होता था, क्योंकि वह नाम लिस्ट में किसी और जगह पर छप जाता था। मेरा काम ऐसे नामों को खोजना था, जिसे दूसरे लोग नहीं खोज पाते थे। इसी तरह जब किसी विशेष जिल्द पर इतनी अधिक पर्चियाँ इकट्ठी हो जाती थीं, कि उनको सम्बंधित कर्मचारी नहीं सँभाल पाता था, तो मैं उसकी जगह बैठकर मिनटों में सारे नाम खोज देता था और प्रवेश पत्र बना देता था। इस तरह बारी-बारी से मैं सारी जिल्दों का लोड निबटा रहा था। उन तीन-चार दिनों में मैंने हजारों प्रवेश पत्र बनाये होंगे और शायद ही कोई परीक्षार्थी वहाँ से निराश लौटा हो। इस कार्य से मुझे थकान तो बहुत हो गयी, लेकिन बहुत सन्तोष भी हुआ कि मैंने किसी परीक्षार्थी को निराश नहीं जाने दिया। पूरे कार्यालय के लोगों ने इसके लिए मेरी बहुत प्रशंसा की थी।
(जारी…)
विजय भाई , आज का काण्ड भी अच्छा लगा . ताइक्वान्दो पहले कभी नहीं सुना . मेरे पोता भी जाता था कराती सीखने और उस को भी काफी बैल्टें मिली थी लेकिन ताइक्वान्दो कभी नहीं सुना , यह भी पता चल गिया . आप बहुत ही मिहनती शख्स हैं और दिल के अछे भी , इसी लिए लोग आप की सराहना करते हैं .
धन्यवाद, भाईसाहब.
मेरी जानकर के अनुसार कराते में मुख्यतः हाथों से वार करना सिखाया जाता है, जबकि ताईक्वान्दो में हाथ और पैर दोनों से प्रहार करना सिखाया जाता है. बहुत से प्रहार दोनों के मिलते जुलते हैं.
आज की क़िस्त आद्यांत पढ़ी। आपकी कार्य के प्रति निष्ठां एवं समर्पण देखकर प्रसन्नता होती है। तुलसीदास जी की चौपाई याद आ गई जिसमे कहा है कि “ऐसी बानी बोलिए मन का आपा खोय औरन को शीतल करे आपहुं शीतल होय।” यहां यदि बानी बोलिए की जगह कार्य कीजिये कर दिया जाय तो यह किसी कर्त्यनिष्ट व्यक्ति पर भी लागू हो सकती है। आपका व्यक्तित्व प्रेरणादायक है। हार्दिक धन्यवाद।
आभार, मान्यवर !