मेरे घर का किवाड़
मेरे घर का किवाड़
आज भी बुला रहा है
मुझे अपनी चरमराहट से
बैचेन होकर
देख रहा है
किसी न किसी आहट पे
बचपन सारा बीत गया
उसकी ओट मे लुक छिपकर
कभी हंसती हुई कनखियों से
तो कभी कुछ पलों मे घुट घुटकर
मन की वेदना को समझा
अपनी कुंडियों मे सहेजा
नही उडेला बहुत कुछ सच
रखा बंद घबराहट से
मेरे घर का किवाङ
कभी नव वधु के
घुंघट की आड़ ये
कभी देर तक न आये
प्रियतम की ताक ये
सहस्त्र युगों का साक्ष्य
रात भर प्रखर प्रहरी सा
आज भी बुला रहा है
मुझे अपनी चरमराहट से
मेरे घर का किवाड़
— मधुर परिहार
बहुत खूब .
बेहतरीन कविता !