स्मृति के पंख – 16
वारस खान पार्टी का एक भरोसे मंद लड़का था। उसका बड़ा भाई नम्बरदार था और नवाब टोरू का कारिन्दा था। उससे छोटा भाई नवाज खान सी0आई0डी0 का इंस्पेक्टर था। वारस खान सबसे छोटा था और मुल्क के काम में आगे ही रहा। उसकी दोनों टांगे नहीं थीं, लंगड़ा था, बैसाखी से चलता था और शौकिया अपना टांगा रखा हुआ था, जो पार्टी के ही काम आता। वारस खान इसलिये भी विश्वासपात्र था, क्योंकि उस पर किसी को शक नहीं हो सकता था कि यह इंकलाबी लोगों से संबंध रख सकता है। जब मेरी रिपोर्ट इसको मिलती, तो प्रेस को भिजवा देता और दूसरे दिन अखबारों में पूरी खबर मिलनी शुरू हो गई। पुलिस को भी बहुत हैरानी थी कि कोई प्रेस रिपोर्टर न होते हुये भी और दफा 144 के होते हुए भी रोजाना की पूरी जानकारी प्रेस को कैसे मिलती है। उसके बाद नवाब टोरू ने बेदखली के आर्डर लिये और पुलिस ने गाँव में आम गिरफ्तारियां शुरू कर दीं। कोई भी नौजवान गाँव में नहीं बचा। लगभग सब गिरफ्तार हो गये। लेडीज और बूढ़े लोग बाकी बचे। मुझे भी पुलिस ने लारी में बिठा लिया था, लेकिन गोकुलचन्द ने मुझे उतरवा लिया।
अब नवाब ने जिन जमीनों से बेदखली का आर्डर लिया था, उन पर खड़ी फसलें कटवानी शुरू कर दीं। औरतें और बूढ़े लोगों पर लाठी चार्ज भी किया। रोजाना की रिपोर्ट अखबारों के जरिये इतनी तशदद भरी निकलती, तो लोगों की हमदर्दी बढ़ती गई। जब औरतों पर लाठी चार्ज का जिक्र छपा, उसके कुछ दिन बाद दोबारा कुछ दिन डा0 खान साहब आये। हम लोगों ने उसे पूरी जानकारी दी और दिखाया कि किस तरह खड़ी फसलें काट कर लोगों को बदनाम किया जा रहा है। गरीब लोग हैं, किसी के पास कुछ है नहीं, लोग भूखे मर रहे हैं। पूरी तरह देखने के बाद हमसे कहने लगे कि बातचीत किसके साथ की जाये। हमने कहा कि भगतराम इटीपुर जेल में है, बातचीत तो वही कर सकते हैं। काफी लम्बे समय तक एजीटेशन चलती रही। आखिर में यह फैसला हुआ कि जितनी भी मौरूसी जायदाद थी और मकान भी, वह उनके पास रहेगा। जैसा कि भगतराम की मांग थी, वैसे ही फैसला हुआ। जिनकी खड़ी फसलें तबाह हुई थीं, उन्हें भी कुछ मुआवजा मिला और गाँव के लोग और सब जितने भी गिरफ्तार हुए थे सोशलिस्ट पार्टी के, पूरी इज्जत और शान से गाँव पहुँचे। लोगों ने भगतराम का पुरजोर स्वागत किया।
एक दिन सुबह-सुबह दाऊद का बेटा फकीरा मेरे पास आकर पूछने लगा यह लोग भगतराम के मुजेरा थे। मालकिन ने कहा है, तुझे भगतराम का कुछ पता है। मैंने कहा, ‘फकीरा कल जब तुम और भगतराम आलू का बीज मेरे से लेकर जुदा हुये, उसके बाद भगतराम को मैंने नहीं देखा। बात क्या है?’ कहने लगा, ‘रात को उसने बोला था सुबह आलु काश्त करेंगे। लेकिन घर पर नहीं है, ना जाने कहाँ गायब हो गया।’ मैं चाचीजी से पता करने के लिये उनके घर चला गया। चाचीजी काफी परेशान थी। बगैर कहे कहाये किधर चला गया। फिर काफी दिनों तक भगतराम का कुछ पता नहीं चला, जबकि उसकी शादी को अभी छः महीने ही हुये थे। फिर दिन हफ्ते और महीने गुजर गये, भगतराम नहीं आया। एक दिन अचानक उसका छोटा भाई मनोहर लाल मेरे पास आकर कहने लगा- ‘पापा तुझे बुलाते हैं।’ मैंने कहा, ‘कौन? लाला जमनादास?’ उसने कहा -नहीं। ‘तो क्या ईश्वरदास?’ उसने कहा, ‘नहीं भगतरामजी आये हैं और तुझे बुलावा आया है।’ मैं उसी वक्त दुकान बंद करके उनसे मिलने गया। छत की बैठक पर मेरा इंतजार कर रहे थे। देखते ही बगलगीर हुये। बातें भी मालूम हुईं। उन्होंने कहा, ‘नेताजी सुभाष चन्द बोस को देश से बाहर ले जाने का काम मुझे सुपुर्द किया गया था और काम बहुत अच्छी तरह पूरी हो पाया। वह तो जर्मन चले गये, मैं काबुल से रूस होता हुआ वापिस आया हूँ। छुपकर ही रहना पड़ेगा वरना गिरफ्तारी हो जानी है और मैं गिरफ्तार होना नहीं चाहता। अब भगतराम की विचारधारा पूरी कम्यूनिस्ट थी। रूपोशी के दौरान उसका गलाढेर आना होता, तो मुझे जरूर मिलता। ऐसा चार-पाँच दफा हुआ। आजादी मिलने तक भगतराम और उसकी बीवी कहाँ रहते इसका मुझे भी कम से कम पता नहीं था। आजादी के बाद ही उनका पता चला। उन दिनों वारिस खान और उसका टांगा भगतराम के बहुत अच्छे मददगार और साथी थे।
ईद के दिन थे। मैंने बजाजी काफी लगाई हुई थी, दुकान भरी थी। पड़ोस में मुकरम बाबा ने मुझे सुबह 4 बजे नमाज को जाते आवाज दी। गर्मियों के दिन थे, मैं छत पर सो रहा था। बाबा ने आवाज दी कि ‘तेरी चोरी हो गई है। दुकान में सुराख लगा है।’ मैं दौड़कर नीचे आया और देखा कि दरवाजे बंद हैं और सामान दीवार तोड़कर ही ले गये हैं। 5-7 दिन तो इसी परेशानी में और दौड़ धूप में रहा। फिर काम के दिन थे और सामान लाने के लिए अभी रुपया भी मेरे पास नहीं था और काफी परेशान सा रहा।
एक दिन सकीना ने मुझे घर बुलवाया और कहने लगी कि बहुत दिनों से तुम परेशान लगते हो। मैंने कहा कि नुकसान हो गया, इसलिए परेशानी तो है ही। उसने पूछा कितना नुकसान हुआ और मैंने बताया कि 1000 रुपया के लगभग। फिर उसने कहा कि घबराओ मत। रुपया मुझसे ले जाओ और माल ले आओ। ईद के दिनों में ही यह नुकसान पूरा हो जायेगा, लेकिन जिसने चोरी की है उसका मुझे इलम है। एक तो मेरा बड़ा जीजा दुराना है, दूसरा उसके साथ कौन हो सकता है, मुझे पता नहीं। मैंने अपनी आँखों से बहन के घर बजाजी पड़ी देखी है। लेकिन तुमने इस बारे में पुलिस से कुछ नहीं बताना। जो हो गया उसका नुकसान मैं पूरा कर दूंगी। पहले मेरे एक जीजे बरकत ने तुमसे झगड़ा करने की कोशिश की और अब दूसरे ने नुकसान किया। मुझे लगता है यह लोग जब पहले हमसे काफी रुपया ले जा चुके हैं। अब मैंने मां को बिल्कुल मना कर दिया है और घर में रुपया भी नहीं जो उनको वो दें। उन्हें ऐसा लगता है कि जैसे मैं उनके रास्ते में रुकावट बना हूँ और यह बात ठीक भी थी, क्योंकि उनका रुपया मैंने सेफ कर दिया था।
ईद के दिनों में ही इतना काम हुआ कि दूसरे महीने मुझे नुकसान लगता ही न था। सबका भुगतान ठीक समय पर होता रहा। कुछ समय बाद विद्या बहन की शादी निश्चित हुई। विद्या का रिश्ता गाँव के एक खन्ना परिवार लाला रामचन्द के लड़के हरिकिशन के साथ हुआ था। भ्राताजी ने मरदान दुकान का हिसाब करवाया। वहाँ भ्राताजी को 300 रुपया देने निकले। मुझे हैरानी तो इस बात की थी कि गंधम-घी तो गाँव की दुकान से जाता रहा, भ्राताजी खर्च भी बहुत संकोच में करते थे, फिर भी 300 रुपये के कर्जदार निकले। यह बात मुझे अच्छी न लगी। इससे तो बेहतर था कि गाँव में हम इकट्ठे रहते। लेकिन अब शहरी जिन्दगी को छोड़ना भ्राताजी के लिये मुश्किल था। विद्या बहन की शादी हो गई अच्छी तरह। हरिकिशन खन्ना से भी मेरा मेल मिलाप अच्छा था।
(जारी…)
आज की किश्त रोचक है। श्री भगत राम जी वा नेताजी सुभाष चन्द्र बोस के प्रसंद रोचक व ज्ञानवर्धक लगे। आत्मा कथा लेखक ने सकीना से एक हजार रुपया लिया या नहीं। वहां एक दो बातें समझ में नहीं आईं। लगता है आत्मकथा लेखक ने सकीना जी से रुपया लिया था तभी तो उन्हें मुनाफा हुआ।
लिखा तो है कि ईद में घाटा पूरा हो गया. उन्होंने सकीना के रुपये से ही माल खरीदा होगा.
जी, धन्यवाद।
विजय भाई , आप ने बहुत अच्छा किया जो यह जीवनी हमें सुना रहे हैं किओंकि इस सब से हमें आजादी की जंग में कूदे उन बजुर्गों को जान कर अतिअंत ख़ुशी हुई है. किन किन मुश्किलों में उन्होंने संघर्ष जारी रखा . गृहस्थ जीवन को भी चलाना और जंग भी जारी रखना , मेरा राधा कृष्ण कपूर जी की सिम्रिति को परणाम .