मेरी कहानी – 26
मेरा विचार है कि जीवनी लिखने में एक दिक्क्त तो आती ही है और वोह है बचपन की यादें। कौन सी बात १९५० में हुई, कौन सी ५१ या ५२ में, इन को सही सही लिखना अतयंत कठिन है। यह मैं इस लिए लिख रहा हूँ कि मेरी यादों की माला के मणके भी बिखरे हुए हैं और जैसे जैसे मुझे मिल रहे हैं मैं इन को अपनी माला में पिरो रहा हूँ।
उस समय गाँव में पढ़े लिखे लोग कम थे. जो पढ़े लिखे थे वोह भी मैट्रिक से ज़्यादा नहीं थे। हमारी गली में जट्ट लोग ही थे, इस लिए इस को जट्टों की गली कहते थे। इस में दो घर झीवर यानी मिश्रों के थे, चार घर ब्राह्मणों के थे। एक भुल्ला राम ज्योतिषी था जो बहुत सभ्य था और सब लोगों से उनका प्रेम था। दूसरे बाबू राम मास्टर थे, वोह भी बहुत अच्छे थे लेकिन दूसरे दो और घर भी ब्राह्मणों के तो थे लेकिन वोह खेती करते थे और जट्टों जैसे ही थे। किसी भी लड़ाई झगडे में किरपान या सोटा निकाल लेते थे और लड़ाई के लिए तैयार हो जाते थे, और शराब भी बहुत पीते थे। इन में ही एक था मलावा राम। इस मालवा राम का ही लड़का मदन लाल हमारे साथ पड़ता और खेलता था जिस को हम मद्दी कहते थे। जट्ट लोग लड़ाई झगडे में माने हुए लोग थे। मलावा राम का एक भाई तो विचारा शरीफ ही था लेकिन दूसरा भाई बाबू राम और मलावा राम लड़ने झगड़ने में शेर थे।
उन दिनों हमारे गाँव से उत्तर की ओर तकरीबन पांच छः किलोमीटर की दूरी पर एक गुरदुआरा होता था जिस को चौंता साहिब बोलते थे। यह गुरदुआरा बबेली गाँव के नज़दीक था और एक नदी के बिलकुल किनारे पर था। यह गुरदुआरा होगा तो अब भी लेकिन बचपन से आज तक मै न कभी वहां गया, न ही इस के बारे में कुछ सुना। आज सुबह ही मैंने इंटरनेट पर सर्च की तो पता चला कि इस जगह पर सिखों के सातवें गुरु हर राय जी ने विश्राम किया था। चौंता पंजाब में बैठने वाली जगह को कहा जाता है. यानी गुरु हर राय जी यहां आ कर इसी जगह बैठे थे, इसी लिए उन की याद में गुरदुआरा बना कर इस का नाम चौंता साहब रख दिया गया। इस याद को लिखने का मकसद एक ही है कि उस समय इस गुरदुआरे में एक मेला लगता था जो शायद मार्च के महीने में लगता था और इसी मेले में बदमाश लोग एक दूसरे से अपनी दुश्मनी निकालते थे।
अपने दादा जी के साथ मैं भी दो तीन दफा मेला देखने गया था. इस मेले में उस वक्त सत्रीआं नहीं जाती थी। एक रवायत यह थी कि बहुत से जट्ट लोग अपने अपने बैलों को लेकर यहां आते थे। इन लोगों ने कोई मानताएँ मानी हुई होती थी और जब वोह पूरी हो जाती तो यहां मेले के दिन आते थे। गुरदुआरे के नज़दीक एक कुँआ था। एक एक करके सभी जट्ट या किसान बैलों को कुँआ चलाने के लिए एक बड़ी लकड़ी जिस से कुँआ चलता था से बाँध देते थे और बैलों को खूब दौड़ाते थे. बहुत लोगों ने शराब भी पी हुई होती थी और बैलों को सोटी मार मार कर बहुत तेज़ दौड़ाते थे। कुछ देर के बाद दूसरा किसान आ जाता था। इस तरह शाम तक यह सिलसिला चलता रहता था। हम बच्चों का मेला तो सिर्फ खाने पीने का मेला ही होता था। गुरदुआरे के नज़दीक बहुत बृक्ष होते थे और इन बृक्षों के नीचे बहुत लोगों ने अपनी अपनी दुकाने लगाई हुई होती थीं। सब से ज़्यादा भीड़ पकौड़े जलेबिओं की दुकानों पर होती थी। हमारे लिए यह जगह बहुत अच्छी होती थी और जी भर के खाते और कुछ घर ले जाने के लिए भी खरीद लेते।
सारा दिन हम घूमते रहते और शाम को होता था पहलवानों का मुकाबला। सारा मेला यहां खेतों में इक्कठा हो जाता। बहुत बड़े गोल दायरे में लोग खड़े हो जाते। बीच में पहले वेट लिफ्टिंग होती। एक बोरी में मट्टी भरी होती थी जो ढ़ाई तीन मन की होती जो आज के एक कुईंटल से ज़्यादा होगी। बहुत पहलवानों ने सीमेंट के वेट बनाये होते थे जिन को दूसरे पहलवान चैलेंज करते थे। जब कोई जीत जाता तो लोग उस की हौसला अफ़ज़ाई के लिए उन को एक एक रुपैया देते। जब यह वेट लिफ्टिंग समापत होती तो फिर कुश्तीआं शुरू हो जाती। पहले छोटे छोटे पहलवान आते फिर बड़े और सब के बाद होता पटके का मुकाबला। पटका एक साधारण पीले रंग का कपडा होता था जो जीतने वाले को दिया जाता था। इस को बहुत ऊंचा खिताब समझा जाता था। इसी तरह एक साल हमारे गाँव के पहलवान का किसी और गाँव के पहलवान से मुकाबला हुआ। मुकाबला बहुत अच्छा था लेकिन पता नहीं किस बात पे झगड़ा हुआ की लड़ाई शुरू हो गई।
हम सभी दूर दूर हो गए। किरपाने चलने लगीं और एक दूसरे को सोटे जिस को डांग बोलते थे एक दूसरे को मारने लगे। कुछ लोग आगे आ कर लड़ाई बंद करवाने की कोशिश कर रहे थे। इन में सब से आगे मलावा राम था। मलावा राम बहुत ऊंचा लम्बा तगड़ा था और नशे में था ऊंची ऊंची जट्टों को ललकार रहा था और गालिआं भी दे रहा था। मेरे दादा जी ने मुझे पकड़ा और मेले के बाहिर आ गए और गाँव को चलने लगे। उस वक्त पैदल चल कर ही जाना होता था, कोई तांगा या बस नहीं होती थी। रास्ता भी खेतों में बनी पगडंडियों का ही होता था। और भी बहुत लोग थे। आगे एक नदी आती थी। यह वोह ही नदी थी जिस के किनारे चौंता साहिब गुरदुआरा बना हुआ है और काफी घूम कर आती थी। उस वक्त नदी में इतना पानी नहीं था और इसे पार करने के लिए ऊपर एक बहुत बड़ी लकड़ी रखी हुई थी जिस के ऊपर धीरे धीरे चल कर नदी को पार करना होता था। मेरे दादा जी ने मुझे कन्धों पर बिठा कर नदी को पार कर लिया। कुछ लोग डर भी रहे थे।
शाम को हम घर आ गए। कुछ देर बाद मैं घर से बाहिर निकल कर पीपलों में आ गया। इन पीपलों में टूटे हुए मंदिर के पास बहुत लोग बैठे ही रहते थे और उस दिन भी काफी लोग थे। कुछ ही देर बाद आठ दस आदमी जिन के हाथों में किरपाने और छविआं थी (एक बड़े से सोटे के आखिर में बहुत तीखा वी शेप हथिआर). कुछ ही देर बाद मलावा राम और दो तीन उन के दोस्त भी आ गए। मलावा राम के कपडे खून से भीगे हुए थे, वोह शराब के नशे में था। मलावा राम ने बहुत जोर से चीख मारी और अपने दुश्मनों को गालिआं देनी शुरू कर दी। दुसरी तरफ से भी किरपाने ले कर आ गए। इसी बीच बहुत से बज़ुर्ग आ कर बीच में खड़े हो गए और दोनों तरफ के लोगों को मनाने लगे. मद्दी भी वहां खड़ा था लेकिन वोह तो मेरे जैसा ही था, किया कर सकता था। हम वहां से रफू चक्कर हो गए और घर को भागने की सोची।
दूसरे दिन ऐसा था जैसे कुछ हुआ ही ना हो। दरअसल यह लोग हमेशा शराब नहीं पीते थे। बस मेलों में ही दुश्मनी निकालते थे। मलावा राम का घर हमारे घर के बिलकुल सामने था और मेरे पिता जी और मलावा राम की दोस्ती बहुत थी। मेरे पिता जी भी कभी कभी शराब पी लेते थे और मलावा राम तो पीता ही था। मलावा राम तो एक गरीब किसान ही था लेकिन मेरे पिता जी आर्थिक तौर पर अच्छे थे, इसलिए मेरे पिता जी मलावा राम को शराब भी देते और मीट भी खिलाते। मलावा राम की पत्नी यानी मद्दी की माँ रतनी का मेरी मां से बहुत पियार था। मद्दी की दो बहने माया और मोहणों मेरी बहन की सहेलिआं थीं और अक्सर हमारे घर ही रहती थीं। मेरी बहन और मद्दी की बहनें रल मिल कर चक्की से आटा पीसती और गाती रहतीं। कभी कभी वोह मिल कर दरीआं बुनतीं क्योंकि दरीआं बुनने का फ्रेम हमारे दालान में लगा हुआ था। अपनी अपनी शादी के लिए वोह चादरें बनातीं जिस पर तरह तरह के डिज़ाइन होते थे। हमारे दोनों घरों में बहुत प्रेम था लेकिन यह प्रेम अचानक खत्म हो गया।
एक दफा मेरे पिता जी ऐफ्रीका में थे। दादा जी पशुओं वाले मकान में सोते थे। मेरा छोटा भाई साल डेढ़ साल का होगा। एक रात को छोटा भाई माँ के साथ सोया हुआ था और मैं पास ही एक छोटी चारपाई पर सोया हुआ था। अचानक माँ ने सारे जोर से चीख मारी। मैं भी जाग उठा। पास के मकान से बाबू राम और दुसरी तरफ से ताऊ नन्द सिंह भी आ गया। बहुत औरतें इकठी हो गई थीं। उस रात चाँद भी अपने पूरे यौवन पर था और सब कुछ दिखाई दे रहा था। माँ बोल रही थी कि मलावा राम था, मलावा राम था, ऐसे ही बोले जा रही थी। और यह मैंने भी उस को दीवार के ऊपर चढ़ते हुए देख लिया था और वोह दौड़ रहा था लेकिन मैं तो बहुत छोटा था और डरते हुए बोला नहीं था। मलावा राम भी दौड़ कर गुरदुआरे के बाहिर बैठ गया था यहां लोग गुरदुआरे में होता दीवान सुन रहे थे। कुछ लोग गए और मलावा राम को ले आये। मलावा राम यह ही बोलते जा रहा था कि वोह तो गुरदुआरे में बैठा था।
बात दरअसल यह थी कि चाबीओं का गुच्छा माँ अपने सरहाने के नीचे रखती थी। मलावा राम वोह चाबिओं का गुच्छा लेने के लिए माँ की चारपाई के नीचे लेट गया था और वोह गुच्छा लेने के लिए उस ने सरहाने के ऊपर हाथ लगाया लेकिन उन का हाथ माँ के मुंह पर पड़ गया, जिस से माँ को जाग आ गई। मलावा राम बहुत कह रहा था कि वोह नहीं था लेकिन इस घटना के बाद हमारे रिश्ते ज़हरीले हो गए जो कभी सुधर नहीं सके। कुछ भी हो, अब ना तो माँ है ना मलावा राम बल्कि सभी बज़ुर्ग इस दुनिआ को छोड़ गए हैं लेकिन दौड़ते हुए मलावा राम का गंजा सर चाँद की चांदनी मुझे अभी भी उसी तरह दिखाई दे रहा है जब वोह चाँद की चांदनी में दीवार के ऊपर चढ़ रहा था।
(चलता ……)
आदरणीयवाह बहुत खूब यादों को तरोताजा करती हुई अनुपम लेखनी को सादर नमन् और आपका कोटिश आभार
आपने अपने ग्राम की सामाजिक व्यवस्था का प्रभावशाली चित्रण किया है जो रोचक बन गया है। मलावा राम के बारे में पढ़कर रामचरितमानस की पंक्ति “जहाँ सुमति वहां संपत्ति नाना, जहाँ कुमति वहां विपत्ति निधाना।” याद हो आयी। हमने भी देहरादून में झंडे का मेला और टपकेश्वर का मेला देखा है। तब हमारे पास अपनी इच्छा की वस्तुवें खाने के लिए पैसे नहीं होते थे। एक दो आने का चूर्ण खाकर ही संतुष्ट रहते थे। आज की क़िस्त भी रोचक व प्रभावशाली है। धन्यवाद एवं बधाई।
मनमोहन जी , जो भी मैं लिख रहा हूँ , वैसे तो हर गाँव में कुछ ऐसी ही कहानिआन थीं . भले बुरे इंसान तो हर धर्म और जाती में होते हैं . हमारे गाँव में आपिस में बहुत प्रेम था , लेकिन कुछ सिंह भी बहुत बुरे थे , इन में पहले तो मेरा ताऊ ही था . उस वक्त एक दो आने ही खर्च करने को मिलते थे , उस से पकौड़े और एक दो जलेबी ले लेते थे , इन में ही हमारी संतुष्टि हो जाती थी . आप का बहुत बहुत धन्यवाद .
चाय, पकोड़ों के साथ यहाँ समोसे, बंद मक्खन तथा रस (बेकरी वाले) का भी प्रचलन था। यहाँ दूध की कमी के कारण हम लोग चाय भी पीते थे। सादर।
धन्यवाद, भाई साहब ! यह कड़ी भी अच्छी रही. आपने आत्मकथा लिखने में जिन कठिनाइयों का जिक्र किया है वे सभी के सामने आती हैं. कई बार मैं भी चकरा गया था कि यह घटना कब हुई थी.
आपने गाँव के ब्राह्मण जाती के लोगों द्वारा मारकाट और अपराध करने का जो वर्णन किया है, वैसा ही हमारे गाँव में भी है. यहाँ जन्म से ब्राह्मण बहुत से लोग कर्म से मलेच्छ हैं. वैसे कई अच्छे विद्वान भी हैं. दुनिया में हर वर्ग में हर तरह के लोग हैं.
विजय भाई , सही बात है , जब कुछ मैं लिखने की सोचता हूँ तो कौन सी घटना पहले हुई और कौन सी बाद में , तो मन में आ जाता है कि यह तो मुझे दुसरे काण्ड में लिखनी चाहिए थी . इसी लिए जो भी याद आती है लिखे जा रहा हूँ . अछे बुरे तो हर धर्म में होते हैं . जट लोगों के बारे में तो एक कहावत है कि जट पहले खून करते हैं फिर सोचते हैं और ब्राह्मण पहले सोचते हैं फिर करते हैं . हमारे सकूल में एक जट सिख टीचर था . वोह अक्सर जट्टों के लड़कों को कहा करता था , ओए बेवकूफों ! इधर देखो सुनारों को देखो एक छोटी सी हथौड़ी से गहने बना बना कर महल खड़े कर रखे हैं , तुम सारा खानदान दिन रात जमीन में मट्टी होते हो और फिर भी भूखे मरते हो और फिर भी अकड़ रखते हो . हमारे घर के सामने भुल्ला जोतिषी , इतना अच्छा था कि उस की बोल चाल ही मनमोहक थी और उस की पत्नी तो मेरी माँ की बहन बनी हुई थी .