मैं दुखी हूँ …!!
मैं दुखी हूँ –
अपने आप से नहीं,
इस समाज से,
पुरे समाज से नही,
समाज में बिखरी हुई,
विसंगतियों से।
जो विश्वास के आड़तले,
खड़ा होकर पुरा करते हैं,
स्वर्थसिद्धि।
मैं दुखी हूँ उनसे –
जो जनता को धोखे में रखकर,
अपने को नतृत्वकर्ता कहते है।
सहारा लेते हैं –
झूठे वादे, झूठे सपने,
झूठे शान-शौकत का।
इन्हीं को हथियार बनाकर,
जनता को करते हैं गुमराह।
इसी में जनता बन जाती है मोहरा।
मैं दुखी हूँ उनसे –
चलने लगते हैं,
उन्हीं के रास्ते पर,
मान लेते हैं उनको भगवान,
सौप देते हैं उनको इन्द्रासन,
नहीं पता है उनके अन्दर,
घर बनाये बैठा है,
शैतान।
मैं दुखी हूँ उनसे –
जो करते हैं,
जनता से विश्वासघात,
समाज को बनाते हैं- दागदार,
कुप्रवृत्ति को जन्म देते हैं,
असमाजिकतत्व को को जन्म देते हैं।
मैं दुखी हूँ उनसे –
ऐसे ही नेतृत्वकर्ता से
ऐसे ही सन्तुष्टीकर्ता से
ऐसे ही समाजिकर्ता से।
—–@रमेश कुमार सिंह
—–१०-०४-२०१५
बहुत अच्छी कविता.
बढ़िया कविता !
धन्यवाद श्रीमान जी!!!
अतीव सुंदर
हौसला अफजाई के लिए धन्यवाद!! श्रीमान जी!!