मैं किताब हूँ…
मैं किताब हूँ,
जग की सारी उत्सुकताओं
का जवाब हूँ, मैं किताब हूँ।
मानव की हर खोज-खबर का,
ऊँची नीची राह, डगर का,
अगर-मगर का,
तरह तरह के अनुभव- वैभव
का हिसाब हूँ, मैं किताब हूँ।
युद्ध-शांति का, क्रांत-क्रांति का,
तेज-क्लांत का, सत्य-भ्रांति का,
हर अशांति का,
देव-दैत्य के कार्य कलापों
का खिताब हूँ, मैं किताब हूँ।
सत्य-असत्य का, पथ्य-अपथ्य का,
इष्ट-अनिष्ट का, कृत्य-अकृत्य का,
दीर्घ-नित्य का,
मनु पुत्रों के हर आडम्बर
का हिसाब हूँ, मैं किताब हूँ।
उच्च-तुच्छ का, राव-भिक्षु का,
शिक्ष-अशिक्ष का, जड़-प्रशिक्षु का,
सूर-चक्षु का,
भेद-भाव से पुर समाज का
इंतिख़ाब हूँ, मैं किताब हूँ।
रोग-भोग का, गृहस्थ-जोग का,
नव प्रयोग का, भेषज-योग का,
हर नियोग का,
जीवन पथ की दुर्गमताओं
का सिताब हूँ, मैं किताब हूँ।
भुक्ति-मुक्ति का, प्राप्य-तिक्त का,
पूर्ण-रिक्त का, हर आसक्ति का,
हर विरक्ति का,
सूक्ष्म, वृहद, सारी दुविधाओं
का जवाब हूँ, मैं किताब हूँ।
संबन्धों के गुणा-भाग का,
सात सुरों में सजी राग का,
आग-लाग का,
मिलने और बिछड़ जाने का
एक ख़्वाब हूँ, मैं किताब हूँ।
मैं बाइबिल हूँ, मैं कुर’आन हूँ,
शबद-ग्रंथ हूँ, मैं पुराण हूँ,
गीता ज्ञान हूँ,
पाप-पुण्य के भेद की कृतियाँ
लाजवाब हूँ, मैं किताब हूँ।
प्रतिपादन का, आविष्कार का,
दुराचार का, अनाचार का,
जीत-हार का,
लेखा-जोखा रखने वाली
मैं जनाब, वो ही किताब हूँ।
मैं किताब हूँ…..
— मनोज पाण्डेय ‘होश’
बहुत अच्छी कविता .किताब के माने बहुत अच्छी तरह वर्णन किये.
बेहतरीन कविता !
धन्यवाद