मुक्तक : कृषक
हे कृषक तेरा पसीना लहू बनकर झूमता है,
शक्ति , शौर्य, प्रेम से हर जिगर को चूमता है
रात -दिन जो एक करता अन्नदाता है व्यथित
तंगहाली जिंदगी में मौत से नित जूझता है
— राजकिशोर मिश्र [राज]
हे कृषक तेरा पसीना लहू बनकर झूमता है,
शक्ति , शौर्य, प्रेम से हर जिगर को चूमता है
रात -दिन जो एक करता अन्नदाता है व्यथित
तंगहाली जिंदगी में मौत से नित जूझता है
— राजकिशोर मिश्र [राज]
Comments are closed.
बढ़िया मुक्तक !
आदरणीयश्री विजय कुमार सिंघल जी त्वरित हार्दिक प्रतिक्रिया के लिए शुक्रिया एवम् धन्यवाद