आत्मकथा

स्मृति के पंख – 17

कुछ समय बाद सुशीला की मासी के लड़के गंगा विशन की शादी थी। उसने मुझसे कुछ मदद मांगी मैं उसे साथ में मरदान ले गया और अपने एक व्यापारी से कुछ सामान खरीदना चाहा। वह समझ गया कि मैं यह सामान इसके लिये (गंगा विशन) के लिये खरीद रहा हूँ। उसने मुझे बाहर बुलाकर कहा, ‘देखो बेटा तुम यह सामान इस लड़के के लिये खरीद रहे हो। मेरी एक बात सुन लो किसी की मदद करनी हो, जो कुछ देना चाहो उसे अपनी तरफ से दे दो। किसी की जमानत में मत आया करो। हम तो अगर तुमने रुपया नहीं दिया, तो तेरे भाई या बाप से वसूल कर लेंगे, लेकिन तेरी साख खराब हो जायेगी और किसी जगह पैसा देना बहुत मुश्किल होता है।’ ईश्वर जाने वह कौन सा समय था, जो बात उसने कही, वह सच हुई। उसने मुझे एक पैसा भी वापस नहीं किया। गंगा विशन की शादी हमारे ही गाँव में हरिकिशन खन्ना की बहन के साथ हुई थी। काफी सेवा भी की और मदद भी थी, लेकिन उस इंसान ने कुछ भी न सोचा और मुझे रुपया बिल्कुल वापस नहीं किया।

मेरे दूसरे बच्चे का जन्म 1938 में हुआ था। बच्चे के जन्म के वक्त पिताजी ने कह रखा था कि फौरन खबर कर देना। पत्री खोलकर और घड़ी पास रखी थी। प्यारी मासी ने बधाई दी कि लड़का हुआ है। बधाई के पांच रुपये प्यारी मासी को पिताजी ने दिये, लेकिन पत्री को देखकर इतनी खुशी उन्हें न थी, जितनी होनी चाहिये थी। प्यारी मासी ने पूछा, ‘क्यों, भा क्या बात है?’ मैं साथ ही बैठा था। पिताजी ने कहा कि अगर थोड़ी देर बाद जन्म होता, तो सिंह लगन में होता, लेकिन होता तो वही है जो भगवान को मंजूर है। इसका जन्म कन्या लगन का है और उन्होंने पढ़ा ‘सिंह लगन में पैदा होवै करै नाग की सवारी। कन्या लगन में पैदा होवै रहे उदर में बीमारी।’ मेरा पोता है, मुझे बहुत खुशी है, लेकिन आसार यह बताते हैं कि मेरे बेटे पर भारी होगा। इसलिये जो खुशी मेरे मन को होनी चाहिये थी, नहीं हुई। ईश्वर ने कर्मानुसार प्रारब्ध बनाई और वैसे ही यह संसार चलता है। उसमें इंसान क्या कर सकता है?

चोले वाले दिन जिस दिन बच्चे के सगुन भी लेने थे, सकीना और उसकी मां ने भी एक पतीला घी का, दो टुकड़े बोस्की के, एक मुर्गा सगुन में दिये। मुर्गा हमने वापस कर दिया। उन्हें बड़ा ताज्जुब हुआ कि तुम लोग मुर्गा नहीं खाते। हमने कहा, ‘नहीं’।

एक दिन गोकुलचन्द की दूसरी शादी की तैयारी होने लगी। गोकुलचन्द ने मुझसे नेकलेस मांगा वरी में दिखाने के लिये। यह नेकलस मैंने शादी के बाद 10 तोले का बनवाया था। बिल्कुल नया था। हमारे घरेलू ताल्लुकात और मेरे निजी रिलेशन भी बहुत अच्छे थे। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि गोकुलचन्द ऐसा कर सकता है, लेकिन 4-6 महीने बाद भी उन्होंने नेकलस वापस नहीं किया तो मैंने मांगा। लेकिन वह लोग आज कल करने लगे। मुझे अच्छा नहीं लगता था उनसे रोज मांगना, यह तो उन्होंने खुद वापस करना था। कुछ लोग मुझे यह भी आकर कह जाते कि गोकुलचन्द बोलता है मेरा कौन सा जेवर लिया है। फिर मैंने थोड़ा सख्ती से मांगा और सुशीला को भी कहा। गोकुलचन्द से सुशीला ने नेकलस मांगा तो बजाय नम्रता के उसने उन्हें सख्ती से कहा “जाओ कोई नहीं है जेवर” और एक थप्पड़ भी मार दिया।

मुझे बुरा तो लगता था एक तो एहसानफरामोशी, दूसरे दस्तनदाजी। दोस्त है तो क्या हुआ। मैंने उनकी दुकान पर जाकर, पिता पुत्र दोनों बैठे थे, गुस्से में कहा कि अब मैं जेवर मांगूगा नहीं। अगर तुम में ताकत है तो मेरा जेवर रोक लेना। मुझे वसूल करना आता है। मेरा स्वभाव गुस्सा में ज्यादा था, जब कोई ज्यादती करता और फिर मैं बरदाश्त नहीं कर पाता। फिर मैंने जो स्कीम दिल में बनाई कि उसके पास बन्दूक (लाइसेंस वाली) है, उसे उड़ा दिया जाये। पूरा ध्यान रखना शुरू कर दिया कि कौन सा मौका मिले और मैं यह कर सकूं। आखिर एक दिन मेरी दुकान के आगे से गोकुलचन्द और नौकर गुजरे। जैसा कि नौकर के पास बन्दूक हुआ करती थी। उस दिन उसके पास नहीं थी और फिर मैंने अपने कोठे से उनकी बैठक में झांक कर देखा, तो बन्दूक पड़ी थी। मैंने ताला तोड़कर (कमरे का) बंदूक उठा ली। अनन्त राम को रुक्का लिखा कि ऐसा मैंने किया है। वह बन्दूक झुकानी है। उसने लिखकर भेजा कि एक बोरी अनाज की में बन्दूक को दो हिस्से करके बोरी में डाल दो और इस नौकर को दे दो, मैंने वैसा ही कर दिया और बोरी में बन्दूक भिजवा दी। थोड़ी देर बार गोकुलचन्द का पिता घबराया हुआ मेरे पास आया कि बन्दूक नहीं है। मैंने समझाया कि घबराते क्यों हो, गोकुलचन्द साथ ले गया होगा। लेकिन उसको पता था कि बन्दूक नहीं ले गया और वह उसी वक्त मरदान के लिये रवाना हो गया। दोनों बाप-बेटे ने मरदान में ही बन्दूक चुराने की रिपोर्ट पुलिस में दर्ज करवा दी मेरे खिलाफ।

शाम को एक थानेदार और 4 सिपाही उनके साथ ही आ गये। मुझसे पूछा। मैंने कहा, ‘मुझे क्या मालूम है?’ अनन्तराम ने थानेदार के कान में फूंक दिया, शायद बन्दूक उन्होंने फिरोख्त कर (बेच) दी हो। खैर पुलिस ने हमारी तलाशी तो नहीं ली, पूछताछ के बाद चली गई। गोकुलचन्द और नवाब तोरू का कारिन्दा भी था और नम्बरदारी भी उसके पास थी। उसने इंस्पेक्टर को मध्यस्थ बनाने की कोशिश की। फिर भी कुछ दिन बाद इंस्पेक्टर आया और उसे बिठाकर कहने लगा, ‘देखो यह घर की बात है। तुम लोगों का झगड़ा अच्छा नहीं। पूरी बात का मुझे पता चल गया है। तेरा जेवर गोकलचन्द ने लिया, जो वापस नहीं किया। तुमने अपना जेवर वसूल करने के लिये ऐसा किया है। मैं तुम्हें जेवर दिलवा देता हूँ। उसने अगर फिरोख्त कर दिया है, तो रुपया जितना बनता है ले लो और बन्दूक किसी खण्डहर में फेंक दो, जहाँ से मैं बरामद कर लूँगा। इस तरह से दाता भी खारज हो सकता है। जेवर तो नहीं था उसके पास। मैंने 750 रुपया जेवर की कीमत बजरिया इंस्पेक्टर उनसे ले ली अब बन्दूक लेने का सवाल था। मैंने अनन्त राम को कहा बन्दूक किसी खण्डहर में फिकवा दो। ऐसी बात मेरी इन्स्पेक्टर से हो चुकी थी। लेकिन अनन्त राम बिल्कुल मानने को तैयार नहीं था। उसने कहा रुपया हमने वसूल कर लिया है। अब वो जैसे भी चाहें, बन्दूक हमसे वसूल करते रहें। मैंने अनन्तराम को बहुत जोर दिया। तब कहीं जाकर वह उस बात पर रजामन्द हुआ और एक खण्डहर में बन्दूक फेंक आया। इंस्पेक्टर में अपने बयान में लिख दिया कि बन्दूक पुलिस ने मेरी निशानदेही पर बरामद की है।

बातचीत तो जुबानी थी, उसने सौगन्ध खाकर यह फैसला किया था कि हम यह केस वापस ले लेंगे। परन्तु ऐसा नहीं किया उन्होंने। जब केस शुरू हो गया, तो गाँव के 5-7 आदमी जरगाह लेकर उनके घर गये। उनको बिठा कर कहा, ‘तुमने वायदा किया था कि केस वापस ले लेंगे, लेकिन उस पर अमल न करके तुमने कोई अच्छी मिसाल नहीं दी। अब हम पूरी बिरादरी लेकर तुमसे कहने आये हैं कि झगड़ा मत बढ़ाओ। इनकी तो कोई ज्यादती नहीं है, तुम लोग तूल क्यूं दे रहे हो? रहना तो सबने इसी गाँव में इकट्ठे ही है। लेकिन लाला हरीचन्द ने कहा कि फैसला कैसे हो हमारा 6-7 सौ रुपया खर्च हो चुका है। अनन्तराम ने कहा, ‘भापा रुपया कोई मायने नहीं रखता। हम सब लोग दिलों की सफाई चाहते हैं। जैसे हम सब लोग मिलजुलकर रहते आये हैं। उसी तरह प्यार और आनन्द में रहने में मजा है। थोड़े से घर हैं इसमें भेदभाव अच्छा नहीं लगता। लेकिन लाला हरीचन्द ने कहा पहले जो खर्चा हुआ है, वह रखो, तब हम केस वापस लेेगे। यह सुनकर अनन्तराम उठ खड़ा हुआ और सबको कहने लगा, ‘चलो सबकी इज्जत हो गयी।’ और उन्हें सुना आया कि कर लो जो तुमसे बन सके।

(जारी…)

राधा कृष्ण कपूर

जन्म - जुलाई 1912 देहांत - 14 जून 1990

4 thoughts on “स्मृति के पंख – 17

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    हा हा विजय भाई यह तो घर घर की कहानी है . बस फूल के साथ कांटे , ऐसा चला ही आया है . मैंने मलावा राम की बात लिखी थी , न जाने कितना कुछ हम उन्हें दे चुक्के थे लेकिन आखिर चाबिआं चुराने की कोशिश की . हमारे घर में तो बहुत गहने थे , अगर चोरी हो जाती तो भगवान् जाने किया होता .उधर ताऊ रतन सिंह ने हमारा कितना नुक्सान किया वोह तो बजुर्ग ही बता सकते थे .

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, भाई साहब, आपने. ऐसे रिश्तेदार और पडोसी बहुत होते हैं. पर बहुत से अच्छे भी होते हैं.

  • Man Mohan Kumar Arya

    सारा विवरण पढ़कर घटनाओं का ज्ञान हुआ। प्रायः मनुष्य का स्वाभाव है कि वह अपनी मजबूरी दिखाकर सच्चे लोगो से धन आदि लेते हैं और बिना मांगे और मांगने पर भी लौटते नहीं है। कइयों को भूलने की आदत होती है और वह मोटी रकम का कुछ भाग ही किस्तों में देते है और मोटी रकम को देना भूल जाते हैं। सज्जन लोग उनसे कह नहीं पाते। मेरे भी ऐसे अनेक अनुभव हैं। कई नजदीकी रिश्तेदारों से भी इसी कारण सम्बन्ध ख़राब हुए हैं। विवरण रोचक एवं ज्ञानवर्धक है।

  • लेखक का यह वर्णन पढ़कर आश्चर्य नहीं हुआ. बहुत बार हमारे निकट और दूर के रिश्तेदार भी जानबूझकर धोखा दे जाते हैं और हम रिश्तेदारी के लिहाज़ से कुछ नहीं कर पाते.

Comments are closed.