कविता

नारी तुम स्वतंत्र हो

सुबह से शाम तक

चक्कर घिन्नी सी घूमती

कभी आँगन से गुसल तक

कभी चौके से  देहरी तक

कभी हाथ में  जुराब लिए

कभी आटे  में हाथ  सने

कभी चाय की पुकार

कभी कमरे की बुहार

कभी बस की  रफ़्तार

बॉस के तानो की बौछार

सुबह से शाम तक

चक्कर घिन्नी सी घूमती

कभी माँ का दायरा

कभी पति का हक

कभी बहु का कर्तव्य

कभी दफ्तर का लक

सुबह से शाम तक

चक्कर घिन्नी सी घूमती

नारी !!!तुम कितनी भी

आधुनिक हो जाओ

क्या तुम स्वतंत्र हो ?

अपने ही बनाये

दायरों से !

संस्कारों से !!

व्यवहारों से !!

लोकाचारो से !!

 

नीलिमा शर्मा (निविया)

नाम _नीलिमा शर्मा ( निविया ) जन्म - २ ६ सितम्बर शिक्षा _परास्नातक अर्थशास्त्र बी एड - देहरादून /दिल्ली निवास ,सी -2 जनकपुरी - , नयी दिल्ली 110058 प्रकाशित साँझा काव्य संग्रह - एक साँस मेरी , कस्तूरी , पग्दंदियाँ , शब्दों की चहल कदमी गुलमोहर , शुभमस्तु , धरती अपनी अपनी , आसमा अपना अपना , सपने अपने अपने , तुहिन , माँ की पुकार, कई वेब / प्रिंट पत्र पत्रिकाओ में कविताये / कहानिया प्रकाशित, 'मुट्ठी भर अक्षर' का सह संपादन

5 thoughts on “नारी तुम स्वतंत्र हो

  • विजय कुमार सिंघल

    यह समझ में नहीं आया कि नारी स्वतंत्रता की आपकी परिभाषा क्या है? क्या अपने घर को संभालना, अपने परिवार के भोजन और रहन-सहन की व्यवस्था करना परतंत्रता है? अगर यही आपकी परिभाषा है तो कहना पड़ेगा कि मैं इससे एकदम सहमत नहीं हूँ. नारी की गरिमा घर में रहकर परिवार की देखभाल करने में ही है. घर की चिंता छोड़कर बाहर घूमते रहना और होटलों में खाते फिरना ही यदि आपके लिए स्वतंत्रता की परिभाषा है, तो ऐसी स्वतंत्रता को दूर से ही नमस्कार है.

    • प्रीति दक्ष

      विजय जी

      शायद आपने कविता को ध्यान से नहीं पढ़ा

      “नारी !!!तुम कितनी भी

      आधुनिक हो जाओ

      क्या तुम स्वतंत्र हो ?

      अपने ही बनाये

      दायरों से !

      संस्कारों से !!

      व्यवहारों से !!

      लोकाचारो से !! ”

      सपना ने आज की नारी की स्तिथि बताई है साथ ही साथ नारी से ही प्रशन पूछा है कि आधुनिक बनके भी क्या तुम अपने को बच्चों पति सास ससुर और घर की जिम्मेदारियों से मुक्त कर सकती हो ? नहीं।

      ये औरत की विडम्बना है विजय जी की देश की 85 % कामकाजी महिलायें अपने परिवार को सहारा देने के लिए काम करती हैं और साथ ही साथ घर के सभी दायित्य भी निभाती हैं परन्तु यदि उनके घर से निकलने को आप होटलों में घूमना या सैर सपाटे का नाम देंगे तो दुःख होगा। कौन औरत ये चाहती है की बच्चों को सुबह सुबह छोड़ कर ऑफिस भागे देर होने पर बॉस की सुने और घर पर सब काम करके भी पति और सास ससुर कहें की ये नहीं किया वो नहीं किया। सपना ने इस कविता में औरत की स्वतंत्रता घूमने से नहीं वैचारिक स्वंतंत्रता की बात की है। जो वो चाहे कितनी भी सबल हो समाज उसे नहीं देना चाहता। यदि मेरी कोई बात बुरी लगी हो तो क्षमा।

      • मेरे विचार से महिलाओं का नौकरी जैसे कार्य करना परिवार की दृष्टि से उचित नहीं है जब तक कि कोई बड़ी मजबूरी न हो. घर को स्मभालना फुल टाइम जॉब है. अगर आवश्यक हो तो वे घर पर बहुत से कम करके पर्याप्त धन कमा सकती हैं.
        आपको अपनी बात बताऊँ कि मैंने नौकरी वाली लड़की से विवाह करने के लिए मना कर दिया था. फिर घरेलू लड़की से विवाह किया और मैं बहुत खुश हूँ.

  • प्रीति दक्ष

    bahot badiya likha hai

    • विजय कुमार सिंघल

      असहमत !

Comments are closed.