क्या तब भी ……!
ये सूरज की उगती किरणे
ये चहचहाती गुंजन की गलियां
क्या तब भी इतनी खूबसूरत न थी
जब इंसा ने पहली अंगड़ाई ली
ये नदियों का मस्त विहार
गगन का धरती से शृंगार
क्या तब भी इतना चकित न था
जब बाहों में पहली नारी थी
ये अंधेरों की हार
उजियारे के जश्न की गुहार
क्या तब भी इतनी मनोहर न थी
जब पहली किलकारी गूंजी थी
ये मष्तिष्क की रफ़्तार
हाथों में रचते औजार
क्या तब भी इतने तेज न थे
जब भूख महज चिंगारी थी
इस जीवन ज्योत के पार
कहीं मन में उमड़ता प्यार
क्या तब भी इतना मदहोश न था
जब चिलमन की खोज होनी थी
ये आँखों के हद तक सीमा
आजाद हर पलछिन की गरिमा
क्या तब भी ऐसे तृप्त न थी
जब खून की प्यास न जागी थी
ये रिश्तो के आकर्षण
कच्चे धागों के मुकबंधन
क्या तब भी इतने मजबूत न थे
जब धर्म की न कोई निशानी थी
ये बारिश के बूंदों की डोरी
और गगन छु लेते अरमाँ
क्या तब भी इतने विज्ञानी न थे
जब ईश्वर की रचना होनी थी
ये हरसंभव जीने की जंग
चेहरों पे मुस्कान की उमंग
क्या तब भी इतनी खुदगर्ज न थी
जब श्लोकों,आयतो ने नहीं बखानी थी
-सचिन परदेशी’सचसाज’
sundar abhivyakti
धन्यवाद एवम् आभार प्रितिजी !
अच्छी कविता. हालाँकि कई बातों से असहमत हो सकता हूँ.
सहमति और असहमति इन दो किनारों के बिच से सिर्फ कविता ही सकुशल प्रवाहरत रह सकती है ! आपकी असहमति का सन्मान करते हुवे आपको कविता पसंद करने के लिए धन्यवाद !