कविता

क्या तब भी ……!

ये सूरज की उगती किरणे
ये चहचहाती गुंजन की गलियां
क्या तब भी इतनी खूबसूरत न थी
जब इंसा ने पहली अंगड़ाई ली

ये नदियों का मस्त विहार
गगन का धरती से शृंगार
क्या तब भी इतना चकित न था
जब बाहों में पहली नारी थी

ये अंधेरों की हार
उजियारे के जश्न की गुहार
क्या तब भी इतनी मनोहर न थी
जब पहली किलकारी गूंजी थी

ये मष्तिष्क की रफ़्तार
हाथों में रचते औजार
क्या तब भी इतने तेज न थे
जब भूख महज चिंगारी थी

इस जीवन ज्योत के पार
कहीं मन में उमड़ता प्यार
क्या तब भी इतना मदहोश न था
जब चिलमन की खोज होनी थी

ये आँखों के हद तक सीमा
आजाद हर पलछिन की गरिमा
क्या तब भी ऐसे तृप्त न थी
जब खून की प्यास न जागी थी

ये रिश्तो के आकर्षण
कच्चे धागों के मुकबंधन
क्या तब भी इतने मजबूत न थे
जब धर्म की न कोई निशानी थी

ये बारिश के बूंदों की डोरी
और गगन छु लेते अरमाँ
क्या तब भी इतने विज्ञानी न थे
जब ईश्वर की रचना होनी थी

ये हरसंभव जीने की जंग
चेहरों पे मुस्कान की उमंग
क्या तब भी इतनी खुदगर्ज न थी
जब श्लोकों,आयतो ने नहीं बखानी थी
-सचिन परदेशी’सचसाज’

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सचिन परदेशी

संगीत शिक्षक के रूप में कार्यरत. संगीत रचनाओं के साथ में कविताएं एवं गीत लिखता हूं. बच्चों की छुपी प्रतिभा को पहचान कर उसे बाहर लाने में माहिर हूं.बच्चों की मासूमियत से जुड़ा हूं इसीलिए ... समाज के लोगों की विचारधारा की पार्श्वभूमि को जानकार उससे हमारे आनेवाली पीढ़ी के लिए वे क्या परोसने जा रहे हैं यही जानने की कोशिश में हूं.

4 thoughts on “क्या तब भी ……!

  • प्रीति दक्ष

    sundar abhivyakti

    • सचिन परदेशी

      धन्यवाद एवम् आभार प्रितिजी !

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छी कविता. हालाँकि कई बातों से असहमत हो सकता हूँ.

    • सचिन परदेशी

      सहमति और असहमति इन दो किनारों के बिच से सिर्फ कविता ही सकुशल प्रवाहरत रह सकती है ! आपकी असहमति का सन्मान करते हुवे आपको कविता पसंद करने के लिए धन्यवाद !

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