जान पहचान
मेरे कसबे में समंदर नहीं है
कुछ कतरे पानियों के कैद है,
तालाबों में
जब भी घर जाती हूँ
तो एक शाम गुज़ार देती हूँ
मंदिर वाले तालाब की सीढ़ियों पर,
तालाब का पानी बदलता नहीं कभी
कैद है.……
शायद इसलिए पहचानता है मुझे,
जब भी मिलती हूँ
तो कहता है –
“अच्छा हुआ तू आ गयी
बहुत सी बातें बतानी हैं तुझे।”
और फिर शुरू हो जाता है
वो फलां दादी फौत हो गयीं,
अलां के घर बेटा हुआ है
चिलां बाबू की नौकरी छूट गयी,
मगरिब की तरफ का पीपल काट दिया
सड़क बनाने वालों ने,
वगैरा वगैरा,
फिर मुझसे मुखातिब होकर
पूछता है –
“अच्छा ये तो बता
शहर के मिज़ाज़ कैसे हैं
कौन बताता है तुझे
शहर की ख़बरें ?”
मैं जवाब देती हूँ-
“समंदर है न ढेर सा पानी ……. “
और इतना कहते ही
एक बगुला पानी का
गले में अटक जाता है,
खुदा हाफ़िज़ कह चली आती हूँ
वापस शहर में,
जहां एक बड़ा सा समंदर है
रोज़ समंदर के किनारे बैठी
देखती हूँ,
कैसे सैंकड़ों गैलन पानी
बदल जाता है, गुज़र जाता है,
एक आध कतरा पानी का
मेरी तरफ भी उछाल देता है समंदर
बस यूं ही बिना किसी जान पहचान के,
अब रोज़ बदलते पानी वाला समंदर
कैसे पहचान पाएगा मुझे,
कैसे उम्मीद करू उससे
कि वो कहे –
“अच्छा है तू आ गयी
बहुत सी बातें बतानी हैं तझे। “
__ प्रीति दक्ष
ईश्वर का एक नाम कवि भी है। यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय के आठवे मंत्र में ईश्वर को कवि अर्थात क्रांतदर्शी कहा गया है। आपने अपनी कविता में जड़ पदार्थ जल को शब्द दे कर चेतन बना दिया है। हार्दिक धन्यवाद।
aapka gyaan abhimantrit kar deta hai .. sadhuwaad aapka .
बढ़िया !
shukriya vijay ji